थोड़ा पीछे देखते हैं
"जमुना किनारे मोरा गाओं, श्याम रे अई जइयो, श्याम रे अई जइयो", खूब पेचीदी लाइन लगती हैं. हिप होप, पॉप आदि गाने भले ही हिंदी सिनेमा में छाने लगे हैं, लेकिन आज भी कोई हारमोनियम और चिमड़ा लेकर बैठ जाए और भक्ति गीत या फिर और भी कोई लोकल संगीत गाने लगे, उसमे कुछ और ही बात हैं, रोंगटे खड़े हो जाते हैं, मन प्रफुल्लित हो जाता हैं. नब्बे के दशक में जन्मे भारतीयों के सामने कुछ और ही चुनौती हैं. हर पीढ़ी की तरह हमने भी कुछ और ही समय का स्वाद चखा हैं. टेक्नोलॉजी का प्रकोप. कुछ नहीं से सब कुछ. कभी लगता हैं की चिट्ठी ही लिखा करते तो अच्छा होता. ये सौभाग्य हमसे पहले वालों के पास था. इसलिए की ख़त का एक एक शब्द स्वर्णिम होता. मम्मी के पास कुछ पुराने ख़त संचित कुचे रखे हैं. अलग लगता हैं पढ़ने में. मैं तो चाव से पढता हू. 'हाय' नहीं 'आदरणीय' का सम्बोधन मिलता हैं. 'बाय' की जगह 'सप्रेम' या तो 'आपका' लिखके विदा लेते थे. रात में बिजली चले जाए तो भी मोम बत्ती के बिना दुनिया कुछ ज्यादा प्यारी लगती हैं. कम से कम बाँध बनाके नदियों को मारा ना जाता. दिन में सैकड़ो सेल्फी नहीं खींचनी पडती और लोग अपने-अपने घरों में कुए के मेढक की तरहा ही सही बने रहते तो अच्छा होता. कहा मोदी-गाँधी के चक्कर में पड़ गए. सुबह नास्ते से रात के खाने तक बस एक दूसरे की टांग खीची का माहौल बना रहता हैं. आप अपना जी लीजिये, हमें अपने में मग्न रहने दीजिये. ना कोई ईर्ष्या ना कोई द्वेष. इतनी तेज तर्रार भागम भागी से मन में टिंच होती हैं. मिट्टी से अलगाव होता लगता हैं. आप अपने सेल फ़ोन में, हम अपने में गोते लगा रहे हैं. देखिये ना मैंने भी समय की टांग खींचनी चाही. नेताओं की आदत लगने लगी हैं. जाने दीजियेगा. इन दिनों भूपेन हज़ारिका को सुन रहा हू. लेहटा दिया हैं. अदभुत संगीतकार थे. समय बहुत खूब हैं. हम सबका 2019 शानदार रहेगा. शुभ रात्रि.
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