छब्बीसी चढ़ गयी
आज रात बारह बजे हमको छब्बीसी चढ़ गयी. इसलिए जबरन घुटनो में हाथ फेरा और सर्वप्रथम उनसे हमेशा मस्ती में बने रहने की मनोकामना की. उसके बाद आँखों को सेका और कुछ पुस्तकों से जूझने की ताईद बताई. वो मासूम है और चंगी भी. बोली 'जब तक है जान, घबराओं नहीं' और चमक उठी. फिर सर में हाथ फेरा और बालों से हौसला बरकरार रखने की गुहार लगाई. ये कभी-कभार रूठ जाते है और बोरिया बिस्तर बाँधने लगते है. सरकार को इनपे कोई दफा निर्धारित करनी चाहिए तभी समझेंगे.
टेलीविज़न ने भरपूर काटा है हमारा. बचपन अनुसार अभी तक फरारी, बंगला, हवाईजहाज अपने आप आ जाना चाहीये था, पता नहीं कहा अटके हुए है. शायद हमारे ही मंसूबे बदल गए. खैर, शक्तिमान, सुपरमैन भी बनने वाले थे, बाद में पता पड़ा की जे तो मनोरंजनमैन थे. अब मार्किट में नये लोग आ चुके है और अब हमें अतिजैविक शक्तियों का कोई लोभ नहीं रहा इसलिये की बेहतर है की धरती की सोचें. हां अलादीन का चिराग मिले तो देखेंगे. लेकिन कुछ कहा नहीं जा सकता. तो फिर भाई छब्बीस तुम जल्दी आ गए की हमी ने ज्यादा ख्वाहिशे फ़रमायी थी? कोइ बात नहीं. अब आ गए हो तो ठीक है, पर देखो महाराज, ये उम्र वगैरह की धमकी हमें मत दे बैठना, इससे हमें डर नहीं लगता. दूसरी बात के अब इत्मीनान बरखों बरखुरदार, इतने जल्दी आये हो तो थक गए होगे. देखो बाहर की आब-ओ-हवा ख़राब है, दौड़ना बंद कर ही दो अगर अपने फेफड़ों की खैर चाहिए. अच्छा ये बताओ की इतना उत्साह कहा से ले आये हो? दिल बर्दास्त नहीं कर पा रहा, धड़का पेली मचाये है भीतर. इतनी मुस्कान रोज़ क्यू नहीं आती चेहरे पे? मेरी एक मदद करना, वो दुकानवाले से कहना की पूरे साल के लिए 'उत्साह' सब्सक्राइब करना है, रेट जो भी है, मंज़ूर है...
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