अंतरिक्ष

आदमी अफीम होता हैं. जिससे जितना बतिया लो, जितना साझा कर लो, जितना मन का बोल दो, उतना अधिक नशीला हो जाता हैं. फिर आदमी खुदगर्ज़ भी होता हैं. वो आपसे दूर जाते वक़्त अपने मतलब की देखता हैं. आदमी अकेला भी होता हैं. अकेले, अपने भीतर किसी मटके की तरहा डुम डुम बातें करता हैं. अकेला आता हैं, अकेले इरादे बनाता हैं, अकेला जाता भी हैं. अंतरिक्ष बगल के कमरे में रहता था. वो आज बोरिया बिस्तर बाँध कर अपने घर को रवाना हो गया. उसका इस बवाल शहर में मन लगना बंद हो गया था. ये इमारतों और आदमियों से भरा हुआ शहर उससे सम्भला नहीं गया. "यहाँ लोग कैसे रह लेते हैं!"... "हमारे वहाँ सब खुला हैं, घूमने के लिए पहाड़ वादिया हैं"... "ये शहर में रहना बोहत कठिन हैं"... "दम नहीं घुटता होगा इनका?"

अंतरिक्ष का जाना हलके सुलगते अंगारे की तरह धीमे से चुभने लगा. आदमी दो बार नहीं मिलता. आदमियों से दो बार की मिलने की आकांक्षा करना ही व्यर्थ हैं. आदमी जितना दिन आता हैं, उतना दिन साथ रहता हैं, उतने पलों के लिए समय और जगहा साझा करता हैं. मुझे नहीं मालुम की अंतरिक्ष अब कब दोबारा मिलेगा. शायद कभी नहीं!

अंतरिक्ष, तुम्हारे जाने से यहाँ 'ज़्यादा कुछ' नहीं बदला. रात्रि वैसे ही कटी और सूरज वैसे ही निकला. सब्ज़ी वाले और फेरीवाले वैसे ही तेज ध्वनि में सामान बेचते हैं. आसमान वैसा ही बदरंग हैं. तुम्हारे कमरे के ऐ. सी. के ऊपर कबूतर वैसे ही आकर चहलकदमी किये. आसपास की इमारतों का रंग भी वैसा ही हैं. उसमे रहने वाले आदमी भी अपने में ही मग्न हैं.

हां, बाथरूम में रखा तुम्हारा टूथब्रश सोचता हैं की आज अभी तक तुम क्यूँ नहीं आये? उसे ले जाते तों अच्छा होता. शहर से निकलने की जल्दबाज़ी में छोड़ गए, या बस यूं छोड़ दिए? दीवाल पे लगा दरपन दर्शन की लालसा पे मगरूर हैं. शक्कर, चायपत्ती, दूध, बर्तन भी सब तुम्हारे जाने पे मौन हैं. बोतल का पानी आज़ाद बाहर निकलने को बेक़रार हैं. तुम उसे ज़ालिमा असहाय छोड़ गए. कल तुम्हारे जाने के बाद किसीने उपयोग नहीं किया.

हरी भैया आये थे और तुम्हारे गंभीर, उदास और बिखरे कमरे को मना के गए हैं. उन्होंने कमरे की खूब खातिरदारी की, रगड़ के चमकाया, धूल झटकारी, पोछा मारा. वे मनाने के लिए कुछ देर पलंग पे भी बैठे, बिस्तर को सहलाया, खिड़कियों से झाँका. लकड़ी के बेंच अपने मित्र पुस्तकों की राह देखते हैं. ये बिछड़न तुम्हारी ही देन हैं. कमरे के परदे मूक हैं, खिड़कियां बेजान, दीवाले मदहोसी से बदहाल! खाना आज मेरा अकेला का ही बना था.

खैर.. जहा भी आशियाना बनाओ, वैसी शुभकामनायें!

*fiction

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