धरती

इन्दरबचिन्दर, कितना तप कर सकते हो? कितना? बताओ तो?

"मैं सवा करोड़ साल तक एक ही स्थान में बिना हिले बैठा रह सकता हूँ"

इन्दरबचिन्दर, यूँ ना फाकों, कल का लड़कउ इत्ता कर सकता हैं. तू क्या इतना ही सामर्थवान हैं? धिक्कार हैं!

"मैं चालीस करोड़ साल तक एक पैर में, एक स्थान में, बिना हिले खड़ा रह सकूंगा"

इन्दरबचिन्दर, मुझे इन छोटे मोटे तपों से कोई मोह नहीं. तू अपने आप को महान कहता हैं! बस इस बात के लिए? यहीं तेरे जीवन की परिकाष्ठा हैं? यहीं तेरे जीवन का लक्ष्य हैं? यहीं तेरे होने का वजूद हैं? तो तू जीवित क्यूँ हैं? तेरे होने या ना होने से यहाँ कौन फर्क पड़ेगा? तू अगर महान कहलाना चाहता हैं तो ये बचपना छोड़, इन्द्रियों का मोह छोड़, भड़कीला पत्थर बनना होगा, महाकाल की तरह! बोल कर सकेगा! बोल तू क्या कर सकता हैं!

"मैं... मैं... मैं..."

बोल! क्या सोचता हैं? क्या हैं तेरी शक्ति? क्या हैं तेरा मनोबल? क्या हैं तेरे इरादे? कौन हैं तू! बोल!

"मैं धरती बनूँगा. मैं युग-युगान्तर तक होने वाले भूमण्डल में इस्थापित वे जो एक मात्र गृह होगा जिसमे जीवन हसेगा, लड़ेगा, मरेगा, जियेगा, मैं उनका बोझ उठाऊंगा. मैं! मैं अमूक बनकर, सालों साल, सूरज के महाताप को, वर्षा के भीषण उल्लास को, समुन्दर के भयानक भार को, अग्नि के प्रताप को अडिग रहकर इस भूमण्डल में अनगिनत सालों तक विशाल अँधेरे और एकाकीपन में चक्कर काटूंगा!", इन्दरबचिन्दर घोर शालीनता से, महासुःख का अनुभव करते, दोनों हाथों को जोड़कर, बड़ी मर्यादा से कहता हैं.

धन्य हो! धन्य हो!

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