अंशी

रात के सवा तीन बजे हैं. अंशी को नींद नहीं आती आज. रात में थकान की नींद से जल्दी बिस्तर पे आ गया था और देखते ही देखते झपकी लग गयी. जब नींद खुली तो कंठ सूखा था. माथे पे पसीने की कुछ बूँदे थी. कुछ देर पर अंशी उठा और फ्रिज से ठन्डे पानी की एक बोतल लेकर मुँह लगाके गटागट ख़त्म कर दिया. कमरे की बत्ती बुझा के बिस्तर पे वापस आया. अब तक मन जाग उठा था. पूरी तरह से चेतन्न हैं, बेकाबू था. आधे पूरे मन के कोनों में से दिन भर की आवाज़े, तस्वीरें, ख़्याल, गाने, बातचीत सुनाई पड़ रहे हैं.

अंशी पीठ के बल औँधा लेटा हैं. कमरे का पंखा पूरे गति से चल रहा हैं. बाहर खिड़की से खुले परदे की आड़ में से कुछ सफ़ेद रौशनी आ रही हैं और कमरे की सीलिंग पे गिर रही हैं. शहर शांत हैं. ये ऐसा पहर हैं जब रात एक दम उफान पे होती हैं. स्तम्भ, असाधारण. बाहर की शांति ने मन को एकाग्र कर दिया हैं. अंशी सोचते हुए तेजी से अपने पैर हिला रहा हैं. नींद का कोई भी ठिकाना नहीं हैं. "पता ही नहीं पड़ा ये दो हफ्ते कैसे बीत गए". "किसी की फ़िक्र करने लगो तो समय जल्द ही बीत जाता हैं". "कितनी सारी बातें की..". "अभी दो दिन पहले ही बात की थी फ़ोन पे. गलती हो गयी. फ़ोन जल्दी रख दिया, थोड़ा और ही बता लेता"... अंशी खुश भी हैं और यादग्रस्त भी हैं.

"आनंद क्या होता हैं? आनंद? ख़ुशी?". कभी सर के भीतर गुनगुनाने की आवाज़ जब अपने आप आये. कहीं कहीं जब ठहरे बारिश का मौसम लगे. कुछ शहद का स्वाद बस यूँ ही... बचपन के गर्मियों की छत वाली धूप.. और कैसे बयान करू? मीठा हलुआ? नीले बादल? सुबह की कोयल? शाम की लालिमा? और क्या?

समय भी एक दम ख़राब नहीं हैं. कुछ दिन ही सही. कुछ पल के लिए ही सही. कुछ तो मेहेरबाँ हुआ ही था. लेकिन बाकी के आधे मन में अभी से ही हारी बंधने लगी हैं. वहाँ तो जैसे कोहरा सिमटने लगा हो. जैसे दो दिन नहीं कितने साल बीत गए. द्वन्द की स्थिति हैं. एक तरफ़ा संतुष्टती, एक तरफ़ा ग्लानि और हलके मीठे गीत. घर के बाहर टंगी विंड-बैल आपस में टकरा कर आवाज़ कर रही हैं. रात्रि के इस पहर में जब सब सोये हुए हैं, बस वो ही सुनाई पडती हैं. वो मन ही हैं. अशांत. 

"चाय? हां चलो चाय बनाते हैं.."





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