रिक्शावाला

आज लॉकडाउन का तीसरा पहर हैं. शहर की व्यापारिक और सामाजिक गतिविधियों पर पाबंधी कसी गयी हैं. शहर जरूरी सेवाओं को छोड़कर पूरी तरह से स्तम्भ हैं. सड़के खाली हैं. ईमारतों में अनिश्चितता हैं और वे शांत हैं. लोग अपने घर की बालकनीयों में से, कमरे की खिड़कियों में से मूक होकर झाकते हैं.

चौराहे के पास वाले बरगद के पेड़ के नीचे रिक्शावाला रहता हैं. उसका खुद का रिक्शा हैं. आज से दो साल पहले उसे ही चलाते चलाते, पाई पाई जोड़ के खरीद लिया था. तीन चक्के का पेडल वाला रिक्शा है. टायर घिसे हैं. रिक्शे और रिक्शेवाले की शक्ल अब मिलती जुलती हैं.

शाम का समय हैं. सड़क में हलकी बारीक सी चहलकदमी हैं. लोगों ने मास्क लगाया हैं. वे जरूरी सामान खरीदने के लिए और कोई एक छोटी सी वॉक के लिए बाहर आये हैं.

ग्राहक नहीं हैं. रिक्शावाला अपने रिक्शे में बैठे हुए मास्क नीचे करके बीड़ी सुलगा रहा हैं. बिना फ़िल्टर की बीड़ी वाला धुआँ सीधे सीने में घुसता हैं. फेफड़ों के छिद्दरों को भरने और सुखाने के बाद रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा कम करता हैं. निकोटिन पहुंचते ही आदमी को हल्का महसूस होता हैं. मस्तिष्क की कमान ढीली पड़ जाती हैं. आदमी एक समय को भूल जाता हैं की भूख, हां, अभी भूख नहीं लगी.

रिक्शावाला बरगद के पेड़ के नीचे ही रोज़ अपना रिक्शा लगाके सोता हैं. रिक्शे के डिक्की में एक झोला हैं जो उसकी पूँजी हैं. ठण्ड और गर्मियों के दिन वो रिक्शे के नीचे कुछ बिछा के उसमे सोता हैं. बारिश के दिन वे अपने रिक्शे के ऊपर एक पन्नी फेहरा देता हैं और अंदर दुपका हुआ सो जाता हैं. उसका साथ देने के लिए गली के कुत्ते रहते हैं. शेरू उसका प्रिय मित्र हैं. वो उससे दिल की बतियाता हैं. 

रिक्शावाला रोज़ एक समय लोकल रेस्टोरा में बाहर खाना खाता हैं, दो समय चाय बिस्कुट लेता हैं. तीन दिन से सभी दुकाने बंद हैं. शरीर अब और कुढ़ गया. हाथों की नसे सूखी चमड़ी से उपटी दिखती हैं. आज टाँगे महसूस नहीं होती. पलकों में खुमारी हैं और आँखों के नीचे गहरे काले गड्ढे हैं जैसे असली काजल लगाया हो. कुछ देर बाद बीड़ी का नशा उतरा और पेट ने लाते मारी. उसे चिढ़ सी महसूस हुई. वो कुत्ते को दुत्कार के गाली दे देता हैं और वहाँ से भाग जाने को कहता हैं. कुत्ता मिमिया जाता हैं. जगह नहीं छोड़ता. भोंकता भी नहीं. प्यार से देखता हैं. आपस की हमदर्दी हैं. कुत्ते ने मास्क नहीं लगाया हैं.

राह से आदमी जरूरी सामान लेके निकल रहे हैं. दूध, दवाइयां, बिस्कुट, नमकीन, सब्ज़ी आदि. रिक्शावाला उनके सामानो को असहायता से घूरता हैं. लोग सामान को तेजी से पकड़ लेते हैं और निकल जाते हैं. "कहीं छोड़ दु?" पे कोई जवाब नहीं आता. कुत्ता अनादर महसूस करके पीछे से भोंकता हैं. रिक्शावाला सांसारिक व्यवहार समझ के हस देता हैं. बरगद के पेड़ की पत्तियाँ हवा से हिलती हैं. आसमान गाढ़ा नीला होता जाता हैं. शाम ढलती जाती हैं. सड़कें और भी अधिक सूनसान होती जाती हैं. रिक्शावाला आज फिर भूखा सोयेगा.

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