हाथी और प्रकृति
थोड़ी देर के लिए हमें अपने ध्यान को हमारे उजड़ते जंगलों की ओर ले जाना उपयुक्त होगा जहा हजारों की तादाद में हाथी और अन्य जीव मारे जा रहे है. जी हां, पिछले चार वर्षो में सत्रह सौ (1715) से भी अधिक हाथी आकस्मिक परलोक सिधार गए. ये संख्या इनकी सात प्रतिशत आबादी के बराबर है जो हमने सिर्फ चार साल में खो दि. इसका कारण ये है की हम तेजी से जंगलों को काट रहे है, जो कभी हाथीयों के मुफ्त भोजन और शैर की जगह होती थी. ऐसे में जब वे हमारे खेतोँ में घुस आते है और हमारी फसलों पे कबड्डी खेलते है, हम वहा बिजली की तारों का प्रयोग करके उनके जीवन पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे है. हमारे बड़े प्रोजेक्ट्स जैसे की बुलेट ट्रेन आदि प्रकृति संरक्षण को लेकर गुमसुम वीरान है. ये ज़्यादती है और धार्मिक शब्दों में फुसफुसाए तो अधर्मी और पाखंडपन है और गहरे तरीके से देखे तो गणपति जी खतरे में है. हां वही जिनका त्यौहार हम हर्षोल्लास से मनाते है, नाचते गाते है, डीजे बजाते है - गणपति बाप्पा मोरया. कृपया करके अपना ध्यान इनकी ओर भी दें अथवा ये त्योहारों को मानाने का ढोंग बंद करें. जब प्रकृति ही नही रही तो त्यौहार कैसा? हम सभी जानते है की हमारे सारे त्यौहार प्रकृति से सम्मलित है. हम पीपल और तुलसी के पेड़ की पूजा इसलिए करते है क्यूकी वो कही ना कही हमारे साथ प्रकृति के माध्यम से जुडे हुए है और कई लाफ देते आये है.
गंगा नदी में कुम्भ चल रहा है और करोड़ों की तादाद में लोग डुपकी लगाने जा रहे है. वैज्ञानिकों का कहना है की ये नदी का श्रोत पृथ्वी के गर्म होने की वजह से खतरे में आ गया है. ये शताब्दी के ख़त्म होते होते हिमालय की अधिक बर्फ पिघल जायेगी, तब ना तो कुम्भ बचेगा और ना ही पर्याप्त पानी अन्य दैनिक क्रियाओं के लिए. गंगा देश के लगभग पचास फीसदी लोगों को अपने पानी से जीने का मौका देती है. देख लीजियेगा अगर समय रहते कुछ किया नही गया तो हम सभी टै हो जायेंगे. इससे गरीब नयी गरीबी की हद को मापेगा.
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