कुआँ.. अब नहीं

एक कुआँ था कॉलोनी में जिसके अंदर अक्सर क्रिकेट खेलते वक़्त गेंद चली जाती थी और फिर कुछ ना कुछ जुगाड़ करना पड़ता था उसे निकालने के लिए, जो पूरा होता था एक रस्सी और एक टोकनी से. जितनी पानी की गहराई उतनी बड़ी रस्सी और उतनी समस्या जुगाड़ने की. फिर इधर-उधर से छोटी-छोटी रस्सिया जुगाड़ों और बाँध के बडी करलो. उसके बाद टोकनी को रस्सी से बाँध दो और शुरू करो मुहीम गेंद निकालने की. ये काफी दिलचस्प होता क्युकी सभी को पहले से ही कुए से डर लगता. गेंद निकलने की अपनी खुशी होती और बल्लेबाज से अनुरोध किया जाता की कृपया बल्ले की दिशा पे नियंत्रण दिया जाए, 'नहीं तो जो मारेगा, वही निकालेगा'. अंत में जिसकी गेंद उसका जिम्मा! फिर भी एक दिन में दो बार गेंद तो जाती ही थी. वैसे तो कुए में गेंद जाना मतलब आउट होना था. कई बार घरवाले लतियाते थे की कुए के पास मत जाओ. गिर विर गया तो क्या होगा, कौन निकालेगा, और निपट गए तो? कभी अंधेरा हो जाने से गेंद नहीं निकाल पाते थे तो रात भर बेचैनी होती थी की कही गेंद खो ना जाए. 

कई बार ऐसे ही खेलते-खेलते आस-पास बैठ जाते थे और पानी को निहारते थे. साफ पानी होता और कुए के भीतर अँधियारा. शांति. कभी कुए की तरफ देखकर कूकी मारते तो आवाज़ गूंजती थी. कभी पत्थर फेक कर देखते थे तो गोल तरंगे बनती थी. कभी एक तरफ़ा रिश्ता था ही नहीं, लगता कोई अंदर रहता हैं. जैसे इसकी भी कोई आत्मा हैं. हिन्दू धर्म में तो कुए की पूजा भी की जाती हैं. गांव में ये देवता समान हैं. कुआँ. 

एक कुआँ गांव में था. वहा बोरवेल नहीं था तो उससे ही सारे पानी की व्यवस्था होती थी. मतलब की मंजन मुखारी, नहाना धोना, पीने का पानी, बर्तन साफ करना ऐसे ही सारी जरूरतों का एक ही सहारा. कुए से पानी निकालने का एक अलग ही आनंद होता. इसमें लगती थी मेहनत इसलिए एक-एक बाल्टी की कीमत का तकाज़ा होता था.  बाल्टी को रस्सी से बांधो, कुए में फेंको, फिर पानी खींचो.

कुए और गुटुर-गुटुर कबूतर के बीच में तो कोई रिश्ता मालूम होता हैं. जब भी कुए में झांको, एक दो फर्र से उड़के बाहर निकल पड़ते. वही कही जहा जगह मिली घोंसला बना लेते. इन्हे कुए के भीतर शीतलता मिलती हैं. वैसे तो अब ये मारे मारे फिरते हैं.

हमारे धर्म हमें आसपास के साधनो से जोड़ते हैं. जैसे की बरगद के पेड़ की पूजा, नीम की पूजा, नदियों की पूजा, सूर्य नमस्कार. बल्कि इनके विलुप्त होने पर और शहरीकरण होने से हम प्रकृति से कोसों दूर होते जा रहे हैं और इससे धर्म की परिभाषा नयी पीढ़ी के लिए बदल रही हैं. बहोत लोगों का मानना हैं की हिन्दू-धर्म धर्म से ज्यादा एक जीने का तरीका हैं. जरूरी नहीं की आपको भगवान की पूजा करनी ही पड़े लेकिन एक समन्वय स्थापित रहता हैं. आज हम जिस प्रकार से अपने वनों को खोते जा रहे हैं या उन्हें मात्र एक पार्क समझते हैं, इससे हमें पुरानी सभ्यता को संरक्षित किये रहने की कोई अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिए. बल्कि एक असंतुलन पैदा हो गया हैं प्रकृति और मानव के बीच में. हम प्रकृति को अपने से भिन्न समझने लगे हैं और उसका अंधाधुंध शोषण कर रहे हैं. जितना अधिक शोषण उतना होगा देश का विकास और उतना बड़ा खड्डा उनके लिए जो अभी जन्मे नहीं हैं. चूँकि ये दूरी बनती जा रही हैं, कही ना कही इससे हमें अशंतोष भी हो रहा हैं, हम इसकी कमी निरंतर महसूस कर रहे हैं और कसमसाये रहते हैं. टूरिज्म इंडस्ट्री ऐसे ही नहीं पँख पसारे फैल रही हैं. लोग दिन भर काम करके घर आते हैं तो चार दीवालों के अलावा, मोबाइल की स्क्रीन के अलावा शायद ही कुछ बचता हैं. पर्यावरण से साझा करने से मानव और अन्य जानवर शान्ति महसूस करते हैं, ये हम सब ने महसूस किया ही हैं...

Rohit's other blogs

Comments

Popular posts from this blog

Our visit to Shanti Bhavan - Nagpur

Bring the kid or not

Ride and the Kalsubai Trek