इ जनरल डब्बा हैं
जबर ठण्ड पड़ रही थी. मकान से एक झोलिया लेकर चले थे जिसमे रात के भोजन के लिए पूड़ी-भाजी थी, एक पानी का बोतल, एक कम्बल, एकठो मफलर, अगले दिन के लिए कच्छा और एकठो शर्ट रख ली थी. एक कॉपी भी थी ताकि समय मिले तो रिवाइज कर लेंगे. उसके भीतर प्रवेशपत्र दबा दिए थे. उसमे लिखा था की स्टेशन से केंद्र पांच किलोमीटर दूर हैं.
सुबह स्टेशन में उतर कर पहले नहाया जायेगा. इनके साथ इनके मित्र बंटू भी थे. उसने कुछ नही रखा. बोल रहा था की परीक्षा देने जा रहे हैं, मंदिर नहीं. जूता मोजा तो हम पहने ही थे. पैर में ठंडी नहीं लगेगी. रात में सगली खिड़की बंद कर दिए और मोबाइल को चार्ज में लगा दिए. हमको बहुत ख़ुशी हुई जब हम डब्बे में चार्जिंग पॉइंट देखे. इसलिए खिड़की वाली सीट को लपक के बैठ गए. भारत तरक्की कर रहा हैं. रात में एक फ़िल्म देख लेंगे.
कम्बल निकाल के बैठ गए. ससुरा छह लोग बैठा था सीट में. ऊपर सब पैर फैलाये छत बनाये हैं. बारह लोग तो ऊपर टंगे रहे. नीचेयों एक लड़का सो रहा हैं, पैर कहा फैलाये? इ जनरल डब्बा हैं.
रात में दोनों कम्बल ओढ़ के एक दूसरे के ऊपर टिकके सो गए. बंटू का मुँह खुला था और टांग उसने सामने वाली सीट में एडजस्ट कर रखी थी. अलाहाबाद आते आते भीड़ छट गयी इसलिए ठंडी ज्यादा लगने लगी. सुबह भी हो गयी थी. बाहर कोहरे का सैलाब चल रहा था और मुँह नाक से भी भाप निकल रही थी. एक चाय मिले तो मजा आ जाये. टकटकी लगा के बाहर ही देखते रहे. काहेकि शहर में कोहरा नहीं दिखता, ऊंची ईमारतो के बीच सूरज भी छुप जाता हैं...
Comments
Post a Comment