गांव और गाडी
एक पतली सडक इस प्लेटफार्म से होते हुई जाती है जो पास के गांव में मिल जाती है. वहा कुछ अनपढ़ और अधपढ़े किसान रहते है. यहाँ से उतरने वाले यात्री ज्यादातर जनरल डब्बे के होते है. यहाँ सारी ट्रेने नहीं रूकती है. जो रूकती बस कुछ मिंटो में अकबका के दहाड़ने लगती है, बौरा जाती है और चल पडती है. छोटा सा गांव है. अब लोग शहर में रहते है. शहर का खाते है. शहर की पीते है. चूल्हे की रोटी बड़े होटलों में मिलती है जिसके साथ वे सैकड़ो सेल्फी खिंचा लेते है, फिर चाओ के साथ खाते है और जेब खाली करके अपने-अपने घोसलों में चले आते है.
ट्रेन जब यहाँ भूल से रुकी तो सोचा क्यों ना बाहर निकल कर एक सेल्फी यहाँ की हवा में भी खीच लू. कम से कम हवा तो ताज़ी ही है और थोड़ी शान्ति है. जितनी देर गाडी खड़ी रही, मै बाहर निहारता रहा. प्लेटफार्म की शांति पता नहीं क्यों खाये जाती है. लोगों की आँखों के नीचे काला गड्ढा है और चेहरे पे जबरदस्ती वाली हसीं. अपने ही गांव में भागे-भागे फिरते है. ऐसा लगता है की लोग खुश है और गांव नाराज़ है या तो लोग नाराज़ हैं और गांव खुश है. ठीक से समझ नहीं आता. शान्ति तो है पर बेचैनी है, धुकधुकी है.
इस ट्रेन में गैरकानूनी तरीखे से चढ़ के या तो टिकट चेकर को अपने दिन की कुछ आमदनी सौंप के चने बेचने वाले, बूट पॉलिश वाले, दंतमंजन, गुटखा, ककड़ी, अमरुद, पानी बोतल, पेपर-सोप, चाय बिस्कुट इत्यादि बेचने वाले शायद इसी किसी गांव से है. इन्हे देख हम ज्यो ही अपने सामान की ओर देखते है. शायद हम भूल गए की यही कही के गांव की ज़मीनो में हमने खदाने बिछायी हैं, बाँध बनाये हैं, टोल और कॉर्पोरेट ऑफिस बनाये हैं और इनसे कई लोग अपने घरों से बेदखल हुए हैं और आज भी उचित भरपाई के नाम पर सरकार का मुँह ताकते हैं. खैर. ये सामो-सामग्री के साथ एक स्टेशन में चढ़ जाते है, पूरी ट्रेन में चिल्लाते हुए सामान बेचते है और अगले स्टेशन में उतर जाते है. इनकी उस दिन की कमाई से इनका और इनके घर का दिन भर का गुज़ारा होता है. आमदनी नहीं तो भूख की मार. और यहाँ पीने के पानी के लिए वाटर प्यूरीफायर नहीं लगा हुआ है. नेताजी अपनी डीलक्स कार में आते है तो बिसलरी साथ में लाते है. कुल मिला के ये लैंडलैस फार्मर्स अर्थात भूमिहीन श्रमिक मे से है. बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण, वनों की कटाई, शहरीकरण इत्यादि का परिणाम भोग रहे है.
एक बात जो गंभीर लगती है वो ये की इन सब के बीच पढ़ी लिखी जनता क्यों चुप है?
ट्रेन जब यहाँ भूल से रुकी तो सोचा क्यों ना बाहर निकल कर एक सेल्फी यहाँ की हवा में भी खीच लू. कम से कम हवा तो ताज़ी ही है और थोड़ी शान्ति है. जितनी देर गाडी खड़ी रही, मै बाहर निहारता रहा. प्लेटफार्म की शांति पता नहीं क्यों खाये जाती है. लोगों की आँखों के नीचे काला गड्ढा है और चेहरे पे जबरदस्ती वाली हसीं. अपने ही गांव में भागे-भागे फिरते है. ऐसा लगता है की लोग खुश है और गांव नाराज़ है या तो लोग नाराज़ हैं और गांव खुश है. ठीक से समझ नहीं आता. शान्ति तो है पर बेचैनी है, धुकधुकी है.
इस ट्रेन में गैरकानूनी तरीखे से चढ़ के या तो टिकट चेकर को अपने दिन की कुछ आमदनी सौंप के चने बेचने वाले, बूट पॉलिश वाले, दंतमंजन, गुटखा, ककड़ी, अमरुद, पानी बोतल, पेपर-सोप, चाय बिस्कुट इत्यादि बेचने वाले शायद इसी किसी गांव से है. इन्हे देख हम ज्यो ही अपने सामान की ओर देखते है. शायद हम भूल गए की यही कही के गांव की ज़मीनो में हमने खदाने बिछायी हैं, बाँध बनाये हैं, टोल और कॉर्पोरेट ऑफिस बनाये हैं और इनसे कई लोग अपने घरों से बेदखल हुए हैं और आज भी उचित भरपाई के नाम पर सरकार का मुँह ताकते हैं. खैर. ये सामो-सामग्री के साथ एक स्टेशन में चढ़ जाते है, पूरी ट्रेन में चिल्लाते हुए सामान बेचते है और अगले स्टेशन में उतर जाते है. इनकी उस दिन की कमाई से इनका और इनके घर का दिन भर का गुज़ारा होता है. आमदनी नहीं तो भूख की मार. और यहाँ पीने के पानी के लिए वाटर प्यूरीफायर नहीं लगा हुआ है. नेताजी अपनी डीलक्स कार में आते है तो बिसलरी साथ में लाते है. कुल मिला के ये लैंडलैस फार्मर्स अर्थात भूमिहीन श्रमिक मे से है. बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण, वनों की कटाई, शहरीकरण इत्यादि का परिणाम भोग रहे है.
एक बात जो गंभीर लगती है वो ये की इन सब के बीच पढ़ी लिखी जनता क्यों चुप है?
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