अफवाह

"मम्मी यहाँ दंगे नहीं हो सकते. बिलकुल भी नहीं. कभी नहीं", इतना कहते ही कहते ईमारत के नीचे से गाड़ियों की रफ़्तार तेज़ हो गयी. सडक में से गाड़ियों का हॉर्न सुनाई देने लगा. एकाएक भर भर गाड़ियां निकलती रही. आस पास के लोगों में फुसफुसाहट शुरू हो गयी. कानो सुनी बातें लोगों के जुबान में फैलने लगी, एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे... भीड़, भगदड़, शोर सभी ने जल्दी पकड़ ली. "क्या हुआ?... कुछ हुआ क्या?... क्या?.. कहा?.. आज?.." लोगों के मोबइल फ़ोन बजने लगे. "हां मैं ठीक हूँ.. यहाँ सब ठीक हैं". सब कुछ मिनटो में बदल गया. दुकानों की शटर गिरने लगी. आधी अधूरी शाम को छोड़ लोग अपने अपने घर को रवाना होने लगे. किराने की दुकानों के आधे खुले शटर में भीड़ का जमावडा होने लगा. "जल्दी देदो भइआ... हां जल्दी देदो... आपने कुछ सुना... कौन करता हैं ये... कितनी बुरी बात हैं.. भइआ हम तो सोचते थे की ये इलाका ठीक हैं.."

थोड़ी ही देर में मेले लगे इस संसारिक वातावरण में अंधकूप छा गया. सड़के खाली हो गयी. लोग अपने घरों में घुसे हुए भी आवाज़ नहीं करते थे. मिनटों में पुलिस की गाड़ियों ने मोर्चा सम्हाला. ये सांत्वना दी जाने लगी की दंगे की खबर एक झूठी वाक्या हैं और यहाँ सब ठीक हैं. पुलिस वालों ने पैदल गली गली लोगों से अपील की और उन्हें अपने घरों में रहने के लिए कहा. हर गली में, वहाँ के रहने वाले युवा डंडे लिए पहरेदारी करने लगे. सोसाइटीज के बड़े लोहे वाली सलाखों के गेट बंद किये गए और एक सूखे मुरझाये सिक्योरिटी गार्ड को वहाँ की कमान संभालने को लगाया. रात खिचने लगी. ये साफ हुआ की ये मात्र अफवाह थी. लेकिन इस एक छोटी से अफवाह ने समाज की बोटी बोटी कस दी थी. लोगों की जाने हथेली में आकर धुकधुकी कर रही थी. 

बात साफ हैं की लोग अनर्गल बतियाना चाहते हैं लेकिन उससे फैले हुए रायते को अपने पड़ोस में नहीं पलने देना चाहते. उन्हें अपनी और अपने प्यारो की जान प्यारी हैं. 



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