मनोज मुन्तज़िर

मनोज मुन्तज़िर एक निहायती कर्मठ और जज़्बेदार आदमी था. वो मिट्टी की खुशबू, गाँव की सुगंध, खून-पसीना, बूते भर अनाज के दाने, गमछे की पराकाष्ठा को भलीभांति पहचानता था. उसके पास वो सब कुछ था जो एक व्यावसायिक व्यक्ति के गुणों की श्रेणी में होना चाहिए. वो आत्मीय था, जुगाडू था, सीखने को जुझारू, अग्रसर, ईमानदार जैसे की एक फलों से बोझिल झुक जाने पेड़ के समान. 

अपने मुकामो को हासिल करने के लिए, समाज से इज्जत बटोरने के लिए वो एक बहुत ही निर्मम कार्य से अपने करियर की कमान दौड़ाना शुरू किया. वो एक रिपेयरिंग तकनीशियन से अपना काम शुरू किया. उसके बोलने की शैली ने, कामुक तीख़ेपन ने उसे सुपरवाइजर की श्रेणी दिलाई, उसके बाद वो सीधा एक कॉर्पोरेट ऑफिस में काम को हुआ. इस एक लाइन का फासला उसने लगन और मेहनत से तय किया. कॉर्पोरेट में वो सब कुछ करता था. उसे वहाँ का सारा काम आने लगा जो की रेगुलर कर्मचारियों को आता हो. उसके काम में भूल चूक भले ही आये, लेकिन अग्रसरता की कोई कमी नहीं होती. फिर भी उसे महसूस होता था की उसके अस्तित्व में किसी वाज़िब इंस्टिट्यूट की स्याही नहीं थपी हैं. उसकी डिग्री में औरों की अपेक्षा कोई बड़े स्टार नहीं चमकते. वो अंग्रेजी बोलने में हिचकिचा जाता था लेकिन औरों से बेहतर बोलने लगा था. जब सारे रास्ते बंद हो जाते तब भी मुन्तज़िर कुछ करने को ललायक रहता. मनोज की तनख्वाह अभी थोड़ी सी ही थी. वो कॉर्पोरेट ऑफिस का बंधुआ मजदूर था. साहब जो बोलदे उसे सुन के लेता था. लेकिन साहब ये भूल गए थे की उसने अपने काम से ऑफिस की नोक अपने हाथ में ले ली थी. वो ऑफिस लेट हो जाए तो काम भी देरी से शुरू होते. फिर भी उसके साथ बराबरी का व्यवहार नहीं होता. वही काम करने पे वहाँ के अन्य लोगो को तिगुनी तनख्वाह मिलती थी. कभी कभी उसकी तनख्वाह देरी से भी आती थी. 

मनोज अपना काम शुरू करना चाहता था. वो हनुमान की तरह अपनी शक्ति को नहीं पहचान पाया था. जैसे तैसे तंग आकर उसने नौकरी और नौकर शाही को नमन किया और अपना व्यवसाय आरम्भ किया. हीरा धूप में ना चमके ये नहीं हो सकता. उसने काम की कमान खूब संभाली.

लॉकडाउन के चलते ऐसे कई मनोज मुन्तज़िर जो आत्मविश्वास को हासिल किये हुए थे आज चकनाचूर होने की कगार पे हैं. ये जरूरी बनता हैं की उन्हें सही मार्गदर्शन मिले और उनकी डूबती हुई नैया को कोई किनारा लगाए. नाव खूब मजबूत हैं. आत्मनिर्भरता को बेक़रार हैं. वो डिग्री और अन्य पुरोहितो की महक से परे हैं. शायद इनके अंदर फसे हुए स्टीव जॉब्स को हम नहीं समझते या हमारा समाज वेस्टर्न देशों के लतीफ़ो से प्रभावित होकर अभी बहुत ज्यादा अभिमानी हैं. ये जगह जगह, गली गली उड़ने को बेचैन हैं. इन्हे बल देने के लिए इनपर भरोसा करना सबसे बड़ी दवा हैं.  

भारत एक दिलचस्पी भरे मुकाम से गुज़र रहा हैं. दो सौ साल तक पहले अंग्रेजो ने रगड़ा और इसका मसाला निकाल दिया. इसके बाद बाबुओ की जोरी सत्तर साल चली. अब की स्थिति ही देखिये की कितने माइग्रेंट वर्कर धनी राज्यों से अपने घरों को पैदल ही निकल पड़े हैं बिना कुछ की परवाह किये बगैर. हर एक व्यक्ति जबरदस्त साहसी हैं जिसके लिए हज़ारों किलोमीटर का फासला धूल मात्र लगा. सोचिये ये क्या क्या कर सकते हैं. ये सभी मनोज मुन्तज़िर हैं - मेहनती, धूल से सने, कुछ भी कर लेने को तैयार..  

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