प्रकृति से ताल

हाल ही में फैली तबाही के बाद चाइना के पशु बाज़ार को खूब जद्दोजहद से कोसा गया. ये बोला गया की वहाँ के लोग कुछ भी खाते हैं, वगैरह वगैरह.. ये सब तब हुआ जब भारत में और विश्व के अन्य देशों में खुद अन्य पशुओं का व्यापार किया जाता हैं. वो बात अलग हैं की वहाँ पर भोग किये जाने वाले पशु वहाँ की संस्कृति और भूगोल से अलग हैं. भारत के सन्दर्भ में ही देखा जाए तो हमारे यहाँ पशु बाज़ारों की दुर्दशा सोचने समझने योग्य हैं. पशुओं के रख रखाओ पर खासा ध्यान दिया जाना चाहिए, ये भी की उनसे 'मानवीय' सुलूक किया जाए.

ये कितनी अजीब बात हैं की इंसान को केवल अपना दर्द ही दिखाई पड़ता हैं. हम इंसान एक जीवित पशु की चमड़ी उकेल कर उसका उपयोग कर सकते हैं, बिना उसकी दर्द भरी चीखो को कोई तवज्जो दिए बगैर. वही कोई इंसान के साथ ऐसा व्यवहार किया जाए तो हमें इसका खेद होता हैं और फिर हम मानवाधिकार की बातें करते हैं. ऐसा क्या हैं इंसान में जो की इसकी जान ज्यादा बेशकीमती हैं अन्य पशुओ की अपेक्षा? ऐसा क्यू हैं की पशुओं को चिड़ियाघरो में कैद कर के रखा जाने में कोई नैतिक संकट नहीं हैं, वही किसी इंसान को जबरन किसी जेल की चार दीवारी में रखा जाना उचित नहीं हैं. क्या पशुओं को दर्द और भाव महसूस नहीं होता? क्या वे रोबोट हैं? 

ऐसे कई सारे पशुओ की प्रजाति हैं जो की इंसानों की अतिउपभोक्तावादी शक्ति के आगे धरती से विलुप्त हो चुके हैं. हमने पशुसंहार किया हैं और बड़ी बात ये हैं की अभी तक हम इसके आरोपी नहीं करारे गए हैं. हमने स्वच्छता पूर्वक अपनी परछाई को पशुओं के खून से बचाया हैं. ऐसा इसलिए की घर बैठे हम परदे के पीछे होने वाले जुल्म को नहीं देख पाते. हम जो चमड़े का पर्स उपयोग करते हैं उसमे खून के दाग़ नहीं होते. 

इस बात को माना जा सकता हैं की एक भोजन चक्र प्रणाली में ज्यादा शक्तिशाली पशु कमजोर पशु का आहार करता हैं. ये प्राकृतिक नियमों के आधीन हैं. प्रकृति में होने वाली क्रियाओं में लुप्त होने और जन्म लेने में समन्वय होता हैं. वहाँ ऐसा नहीं होता की कोई पशु किसी अन्य प्रजाति के पशु पर इतना प्रभावी हुआ हो की उसकी पूरी क़ौम ही लुप्त हो चले. ना ही ऐसा होता हैं की किसी प्रजाति के द्वारा दूसरी प्रजाति को जीवन में अन्य पाबंधी हो. पशु जंगल के नियमों का पालन करते हैं. वे एक दूसरे से बचते बचाते, साथ देकर जीवन निर्वाह करते हैं. लेकिन इस बात की कोई भी पुष्टि नहीं की जा सकती जब इंसान पूँजीवाद से ग्रसित होकर सारे नियमों का उल्लंघन करें और प्रकृति के विपरीत कार्य करें.

इंसानो ने जिस प्रकार से अपने बुद्धजीवी होने का निर्वहन किया हैं वो चिंताजनक हैं. हालांकि ऐसा भी कहना की सारी इंसानी प्रजाती इसकी जिम्मेदार हैं, ये उचित नहीं होगा. इंसानी समाज ऊंच नींच की खाईयों से ग्रसित हैं. ज़मीनी स्तर में काम करने वाला व्यक्ति अक्सर मजबूरन कई अनैतिक कार्य करता हैं. वैसे तो समाज में सबकी बराबर की भागीदारी होनी चाहिए, लेकिन जो ज्यादा ताकतवर हैं उनके कर्मो का प्रभाव लोगों के सोच में अधिक हैं... 

आज इतने आगे आकर के ये सोचना कठिन होगा की कौन सी दिशा को अपनाया जाए. इंसानी जनसंख्या अपने चरम पर हैं. धरती अब हमें संसाधन प्रदान करने में विफल हो गयी हैं. ज़मीन मुल्कों में विभाजित की जा चुकी हैं और लोग आँखों में पट्टी लगा कर भाग रहे हैं... जरूरत हैं की हम थोड़ा ठहर कर के चीजों को पुनः आके और सोच समझ कर प्रकृति के साथ ताल से ताल मिलाये.


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