आप क्या कहते है?

गलतिया, गलतिया और गलतिया... इतनी गलती करने के बाद खेद की भावना मुझे हर दिन डुबोये देती है. कभी पैसे खो देता हूँ और कभी मान. सबसे ज्यादा खटकता है तो समय का खोना. कभी कभी जाने अनजाने में मई ऐसा काम भी कर देता हु जिसे मैं ढिंढोरा पीटकर, सुर ताल के साथ लोगो को मना करता हूँ करने के लिए. ये दो तरफी काम मुझे बाद में खाय लेता है. और फिर सब कुछ होने के बाद, मैं इस सोच में डूब जाता हूँ की मुझे क्या करना चाहिए था. बक्वासी का शिकार होना कहते है इसे.

दो बार गलती स्वीकार है मुझे. किसी भी गलती को तीसरी बार दोहराना मूर्खता है. इससे ये भी मालुम होता है की आप या तो आलसी है, या जवाबदेह होने से कतराते है, या तो आपमें अनुसाशन की कमी है. गए हुए समय को वापस लाना अभी तक तो संभव नहीं हुआ है. परन्तु आने वाले कार्य को किस तरह से किया जाए की इसमें त्रुटियों की मात्रा कम से कम हो? ये निर्भर है की आप पिछली गलतियों को कितनी जल्दी विलाप की प्रितिक्रिया से निकाल कर, उसमे नमक और मिर्ची छिड़कर उसका सेवन कर लेते है... अर्थात उसे भूल जाते है. विलाप केवल एक जहर है और जहर को जितनी देर अपने करीब रखेंगे ये केवल फैलेगा ही. ऐसा मानिये की आपने अपने हाथ में एक भार उठा रखा है. शुरू में तो लगेगा की उठा पा रहे है. जल्द ही आप टूटने लगेंगे. इसलिए सही समय देख कर इसका त्याग करना ही उचित है. यदि गलती करने के पश्चात उसे मापा नहीं गया तो ये उससे भी बड़ी गलती है. जितनी जल्दी हो सके उससे अंदाजी हुई त्रुटि पे एक अग्रसर भाव से उसपर काम कर लेना चाहिए.

चलिए तो हुआ यु की मुझे अपनी गाडी पुणे से इंदौर भेजनी है. परन्तु मेरे पास गाडी का आर.सी. नहीं था और चुकी मैं गाडी एक दुसरे राज्य भेज रहा हूँ, मुझे एक एन.ओ.सी. की भी जरूरत थी. इसके लिए ही मैं आर.टी.ओ. विभाग चल दिया. विभाग के गेट में घुसते ही, एक आदमी ने मुझसे पूछा की क्या काम करवाना है मुझे. वे एक दलाल था. उसकी सकल में लिखा था. चुकी मुझे समय बचाना था और बड़े रूप से मुझे सरकारी काम काजो में उलझना नहीं था, मैंने सोचा की इसे कुछ पैसे देकर काम करवाया जाए. मैंने वही किया. हालांकि बादमे समय और पैसे, दोनों ही ज्यादा लग गए और मजबूरी से मुझे देना भी पड़ा. यदि मैं इसका जिम्मेदार सरकार को कहता, तो मुझे शीघ्र पागल खाने जाना चाहिए. काम मेरा था और मुझे ही इसे करना चाहिए था. एक तीसरे व्यक्ति को, जिससे मैं कभी मिला भी नहीं, उसपर इतना विस्वास करके उससे सही अपेक्षा करना ठीक नहीं था. मुझसे बड़ी गलती हो चुकी थी.

प्रश्न ये है मेरे सामने की मुझे सही तौर पे क्या करना चाहिए था? यदि मैं अपनी बात में अड़ जाता की ज्यादा पैसे मैं नहीं दे सकता, जो की मुझसे मांगे गए एक ऐसे समय में, जब मेरे पास समय का अभाव था. मेरे मन में सवाल था यदि मैं कोई हिंसा करता हूँ तो क्या मैं अपनी गलती को और बड़ा नहीं बना दूंगा? डरा धमका कर के अपना काम करवाना उचित है क्या? दूसरी बात ये की क्या ऐसा सोच कर की और बड़ी गलती हो जाएगी, मुझे उसे पैसे दे देना ठीक था? क्या मुझे इसका किसी भी तरीके से विरोध नहीं करना चाहिए था? और अगर इसने मेरे साथ ऐसा किया, तो जाहिर से बात है, ये दुसरे के साथ भी होगा... क्या मैंने कुछ न करके, इस व्यक्ति के मनोबल को बढ़ावा नहीं दे दिया?

शायद इसी मजबूरी का फायदा उठाकर, ऊपर बैठे लोग नीचे वालों का फायदा उठाते है और ये एक के बाद एक क्रम से ये वारदात होती रहती है जिसमे कभी मन, कभी धन और कभी तन खो बैठते है. शोषित होक शोषण करना शायद यही कही से चालु होता है. मेरे हिसाब से ये एक प्रैक्टिकल स्थिति है और ऐसी बातों पर ज्यादा अनुभवी या अन्य आम लोगो को अपनी राय देनी चाहिए. आप क्या कहते है?

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