घर, प्रवासी, आदमी


जद्दोजहद घर बनाने से लेकर घर बसाने की है, उसे सवारने की है. क्यों ना आदमी ताउम्र बेघर ही रहे. कोई ठिकाना ही ना हो. ऐसा किस हाल में हो जाए. समाज की नीव का विगठन करके सब अस्त व्यस्त करें देते है. क्या बचेगा? आदमी किस लिए कमाने को रुझाएगा?

बेघर आदमी का क्या परिवार? ना आदमी ना उसकी औरत ना उसके बच्चे. फिर तो बड़ी अराजकता की बात हुई. समाज किस रूप में देखोगे? समाज को समाज ही बोला जायेगा या जंगल? तो क्या घर का होना समाज मेँ सामाजिकता का होना है?

मै जंगल की तलाश एक महानगर में करता हूँ. मै प्रवासी हूँ. मुझे बड़ी ईमारतो के जगह घने पहाड़ और खुला आसमान देखना है. मै खुले पेड़ो के तले बैठ कर, खुली हवा में सास लेने को देखा करता हूँ. 

एक प्रवासी की क्या जिम्मेवारी बनाई जाए? की वो प्रवास किये शहर को अपना बना सके? मेरी प्रवसीयता कब तक रहेगी? गर सब सही हुआ तो कभी मै भी इतनी पूँजी इकठ्ठी कर बैठूंगा की अपने प्रवास में एक निश्चित ठिकाना बना लूंगा. उसके बाद उम्र मुझे बची हुई उम्र तक बंदीग्रस्त कर देगी और तभी मुझे अपने प्रवासी होने की याद आएगी. 

प्रवासी होने से लेकर मेरे बंदी होने तक मै बनाये हुए समाज के ढाचे में नाचता ही रहूँगा. सुबह कभी कभी उठके मै गर दस मिनट ध्यान मुद्रा मे बैठ भी गया, मन का विचलित होना कही से जाना नहीं दिखता. आज के पूँजीवाद के ढांचे की बात है या नहीं, आदमी का अस्थिर रहना, लोगों के बीच आस्थाओं का होना, धर्म के जरिये लोगों मेँ सय्यम लाना कइयों मेँ से एक तरीका ही जनाई पड़ता है.. 

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