पलायन करने के लिए
हम सब को उड़ने की, अदृश्य होने की, ये दुनिया से दूसरी दुनिया में जा पाने की शक्ति होनी चाहिए. हाँ. मैं किसी भी माया की बाते नहीं कहता. धरती से पलायन करने की बाते है. विशाल अंतरिक्ष में खोने की बात है. धरती में तो हम आज़ादी से देश भी पलायन नहीं कर पाएंगे. अबके यहाँ राजशीय सीमाये है. सीमाओं में आदमी गोला बारूद लिए आपको मार गिराने के लिए तैनात है. उधर ऐसे ही चले जाने में मनाही है.
बनी हुई व्यवस्था में संघर्ष अनिवार्य है. हा कुछ ऐसे नियम बने है जिससे सामाजिक और आर्थिक लाभ उठाये जाते है. ये सामूहिक शक्ति की देन है. इसे अनेक पूर्वजो ने अर्जित की है. व्यावहारिक होने के स्वाभाव ने सम्मलित की है. एक के लिए सव्यवहार दूसरे के लिए दुर्व्यवहार भी साबित होना संभव है.
आदमी की आदमियत एक दिन की नहीं है. पहले के लोग खुद नरसंहारी थे, निर्वस्त्र घूमते थे, और अपना डेरा लिए उम्र भर फिरते थे. फिर कथाये, मान्यताये, नैतिक नियम क़ानून समय समय से उभरे और विभिन्न जगहों में क्षेत्रीय समाज आज के रूप है. हिंसा अब भी है. सामाजिक तनाव आज भी है.
यों हज़ारों साल की फेर बदली और उथल पुथल के बाद भी आदमी स्वार्थी, डरपोक, ईर्ष्यावादी ही रहा. इसमें कोई शर्म नहीं है. हम सीमित धरती में है. बिना किसी प्रेरणा के हम आलस से भर जाए तो इसमें हमारी आदमियत नहीं बदलेगी. निश्चितता अब दूसरे ग्रहों के आदमियों से मिलने में है, उनसे अदला बदली करने में है, उनके तौर तारीको को अपनाने लेने देने में है.. यहाँ अब बसर कहा.
देखिए, धरती बड़ी सीधी सी है. कुछ फिजिकल नियम है उससे सब बसर है. आदमी और अन्य जानवरो का जीवन उसी से लग के है. गर यहां वातावरण में बदलाव आया तो जरूर ही आदमी के स्वाभाव मे भी आवे.
शायद हिंसा अनिवार्य है. शायद धरती और आदमी के मेल जोल को बनाये रखने के लिए हमारा स्वार्थी होना अनिवार्य है. इसलिए घृणा करना वैसे तो कलेशित दिखता है, ये शायद भविष्य से अच्छा है. इसलिए चलो पलायन करें!
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