रविवार की नींद

अब के सर्दिया लगने को आयी है. एक दो दिन की बात नहीं रही. पूरा एक जमाना चाहिए की उड़ा जा सके. उड़ के कही धरती के किसी दूसरे कोने में जा के सोया जाए. कहा.. कही तो भी. आत्मीयता कहा मिलेगी. मन से शांत कहा रह पाओगे? मुझे खाली समय चाहिए. बैठ के नीले आसमान को देखु. वही नींद लग जाए और बिना समय देखे बस सोता रहूँ.

सॉरी थोड़ा स्कैम हो गया है. अब तक सब कुछ गलत समझाया बुझाया गया है. करियर और ओहदे वाली बाते. आज़ादी कही तो भी नहीं है. देश की, आदमी की, आदमी के अन्तःकरण की.. सब को फसाया गया है. जब जंगलों को काटा गया, जब पुल बना दिए गए, जब ऊंची ईमारतो का निर्माण किया गया. जब घोड़ो को सारथी बनाया गया, जब इंजन का उपयोग यातायात में लाया गया. जब तलवारे, कट्टे और तोपों में इजाफा हुआ. जब किसी ने किसी के घर में घुस के चोरी की. जब आदमी ने आदमी को बंदी बनाया. 

मतलब की आदमी जबसे मॉडर्न बना दिया गया, तबसे.. और उसके पहले का क्या? अच्छा हां. उसके पहले का क्या? कोनसे ज़माने से सोचु! नदिया सूखी तो भूतल से पानी कैसे निकले? हैजा फ़ैल गया तो गाओं के गाओं को कौन बचवा ले? और क्या जद्दोजहद बची. 

अरे.. मैंने तो सोचा था के थोड़ा सुख खोज लू. देखता हूँ की सुख ना अगल में था ना बगल में रहा. बाबा मौनी से पूछे क्या. बाबा, तुम कौन चुप्पी में बैठे रहते हो? ये पेड़ भी तुम्हारा नहीं रहा. इसे काट के यहाँ पार्क बनेगा और यहाँ अब सोसाइटी के बच्चे खेलने आएंगे. आपको थोड़ा धन इकठ्ठा करना होगा. उसके बाद एक कोई अच्छे इलाके में किसी सोसाइटी में घर लीजियेगा. नहीं.. अच्छा कोई छोटे शहर में जाइये. आपके पास कोई जनरेशनल संपत्ति नहीं है तो मगचमारी करनी ही पड़ेगी. पेट नहीं भर पाएंगे. आजकल आदमी को मोबाइल में सारी ज्ञान उपयुक्त बातें मिलती है. आपका कौन सुनेगा. चलीये..

चलिए. मै किसी पार्क में जाकर औंधीयायी छाव के किनारे सो लेता हूँ. मेरे सपने में टाइम मशीन आएगी तो सपनो से ही पहले के ज़माने में चला जाऊंगा. तब के जब रविवार का कोई मतलब नहीं था. 

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