फरवरी का एक दिन
फरवरी का आधा महीना बीत चुका हैं. ठण्ड को लकवा मार दिया हैं. धीरे से मरने पर हैं वो. हलकी रसीली हवा के अलावा वातावरण में अब कुछ नहीं बचा. दोपहर होते होते सूरज हावी होने लगता हैं. लौ तनिक तेज़ हुई हैं. इमारतें, सड़के, दुकानदार, इंसान, कुत्ते, चिड़िया, भिखारी सभी आने वाली ऊष्माऋतू के भय में हैं. पेड़ के पत्तों ने पहले ही हार मानकर गिरना शुरू किया हैं और ज़मीन में धराशाही हुए पड़े हैं. उधडा पीला हाल हैं.
दिन तो किसी तरह शुरू हो गया. 'खट! खट! खट! खट!..', नीचे गली से आवाज़ आ रही हैं. एक पुरानी इमारत को हथोड़ी के जरिये बेतरतीबी और बेहयाई से मिट्टी के ढेर में तब्दील किया जा रहा हैं. ईमारत के कराहने की आवाज़ चारों ओर दूर दूर तक फ़ैल कर गूँज रही हैं. उसे बचाने वाला कोई नही हैं. व्यर्थ में राइट टू फ्रीडम ऑफ़ स्पीच एंड एक्सप्रेशन का उपयोग कर रही हैं. सेकंड दो सेकंड गुज़रता जाता हैं और वहाँ हथोड़ी पे हथोड़ी चलते जाती हैं. बड़ा बेबसी का समा हैं. कुछ मत पूछिए. आसपास की इमारतों में घबराहट हैं. और तो और अभी सुबह ही हैं. सारा दिन बाकी पड़ा हुआ हैं. समय जाने क्या पका रहा है.
आज रविवार क्या हुआ की लोग पगलाए लगते हैं. हफ्ते भर का मलाल निकाले पड़े हैं. गली में जमकर शोर हैं. इनके अंदर भी खूब रोष जनाई पड़ता हैं. उठा पटक धमा चौकड़ी मचा रहे हैं. गाड़ियों की आवा जाहि और हॉर्न युद्ध भी ज़ोरो पर हैं.
बस इन सबों के बीच में, जाने कहा से एक बासुरी वाला इस शहर पे आ गया. उसके एक हाथ में एक डंडी हैं जिसमें कई सारी रंगों की बासुरी टँगी हैं. उसे वे कंधे से बेपरवाह टिकाये हैं. दूसरे हाथ पे एक बासुरी हैं जो वे मधुर ध्वनि से बजा रहा हैं और चले जा रहा हैं. ऐसा लगता हैं की भरे सूखे समसान में ज़ोरों की बारिश हो रही हो. जहन से एक लहर आती हैं जो कहती हैं की अब उड़ती धूल, कराहती ईमारत, आने वाली ऊष्मा सब मंजूर हैं.
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