क्यू?
उसने ऊपर एक हलके नीले रंग की कमीज़ पहनी थी. नीचे कोई हाफ पैंट थी. सिग्नल के किनारे फुट पाथ में खड़ा होकर दोनों हाथ ऊपर करके अजीब ढंग से हवा में चिल्ला रहा था. सामने से गाड़ियों का समुन्दर बह रहा था. ट्रैफिक वाला अपना काम साधारण तरीके से कर रहा था, यानी की उसकी मौजूदगी और आदतां से परे. गाड़ी वाले कांच बंद किये मदमस्त बह रहे थे. धूप तेज़ थी. अचानक जब सामने से कोई फुटपाथ पे आता दिखाई पड़ा तो वो बदल गया और गिड़गिड़ाने लगा. अपने हाथों को सामने फैला दिए और दयनीय चेहरे के साथ मांगने की मुद्रा बनाई. 'दे दे कुछ, दे दे' बोलने लगा. हाथों से मुँह की तरफ खाने का इशारा करने लगा. लाचारी की बाढ़ आ गयी. पथिक मुँह नीचे करके चला गया, पीछे नही देखा. वो भी पीछे नही देखा. वो फिर बदल गया. ज़ोर ज़ोर से हसने लगा जैसे की पथिक के साथ मज़ाक कर रहा हो. ऐसा जैसे की ये एकदम आम बात हो. वो हसते हसते वैसे ही किसी को हवा में इशारे करता हुआ चिल्लाने लगा...
थोड़ी दूर पर एक दूसरे सिग्नल पे एक पैर से अपाहिज व्यक्ति ज़मीन से एक होकर धूल ओढ़े पेड़ के नीचे बैठा हुआ था. वो शांत बैठा था. नीचे देखता, फिर ऊपर देखता, खोया सा जिसके पास कोई मुकाम ना हो हासिल करने के लिए. उसकी व्हील चेयर कुछ दूरी पे खड़ी हुई थी. उसमे हाथ वाला पैडल लगा था. व्हील चेयर के नीचे एक पन्नी थी जिसमें उसकी जीवन भर की जायजाद रखी हुई थी, कुछ कपड़े दिखते थे. जो पथिक गुज़रते थे, उनके सामने वो अमूक रहके बेपरवाह हथेली फैला देता था. कोई दे देता था, कोई नही देता... ना देने पर उसे ना बुरा लगता था, ना नीचा महसूस होता था. ये एक बहोत ही आम बात थी, जैसे की साँसे लेना.
कौन हैँ ये लोग जो की ट्रैफिक के किनारे, मंदिर और मस्जिद के किनारे, पब्लिक जगहों पे बैठे हुए रहते हैँ. वे इंसान ही होते हैं लेकिन इंसानी बातें नहीं दिखती उनमें. जो इंसान की तरह दिखते हैं लेकिन औरो की अपेक्षा मारे मारे फिरते हैँ. कौन हैँ वे का जो की ट्रेनो में आते हैँ और यात्रियों को बहलाने के लिए तरह तरह की तरकीबे आजमाते हैँ. कोई चिमड़ा बजाते हुए गीत गाता हैँ, कोई गन्दी फर्श में घसीटता हुआ झाड़ू फेरता हैँ. कोई नेत्र हीन हैँ. कोई तरह तरह से अपाहिज हैँ. कई लोग ऐसे हैँ जो सयाने हैँ, बूढ़े हो चुके हैँ. वो बच्चा जो की अपने चेहरे में काली स्याही से मूंछ बनाया हुआ हैँ, उसने हसमुख टोपी पहनी हैँ और आते ही बॉलीवुड का कोई गाना तेज़ स्वर में गाता हैँ, गुलाटी मारता हैँ, करतब करता हैं. क्या उसे कोई स्कूल में नही होना चाहिए था?
कौन हैँ ये लोग? कहा रहते हैँ? कहा रात गुज़ारते हैँ? कहा अपनी दैनिक क्रियाये करते हैँ? क्यू इनसे हमने दूरियाँ कस ली हैँ? क्यू ये अब आम बात बन गए हैँ. क्यू?
सरकारी सेन्सस डाटा २०११ की बात माने तो भारत में चार लाख से भी अधिक लोग भीख मांगते है. ये बात यहाँ तक सीमित नहीं है, वो इसलिए की ऐसे आकड़े अकसर सच्चाई से परे होते है जिसका हमें भली भाति ज्ञात है.
कुछ लोगों का मानना है की इनमे से कई लोगों ने इसे अपना व्यवसाय मान लिया है. ये हमे सड़कों में दिखता भी है. लेकिन भारत में भीख मांगना कानूनन अपराध नहीं है. भीख मांगना कोई आसान काम भी नहीं है. यदि कोई भीख मांग सकता है तो वे काम भी कर सकता है. भीख मांगने वाला सुबह से लेकर रात तक अटूट शैली से, एक ही भाव में लीं होकर के भीख मांगता रहता है. ये बड़ा परिश्रम का काम है. अगर यही व्यक्ति अपना यही परिश्रम सही दिशा में देगा तो कुछ और ही फल मिलेगा. यहाँ समाजीकरण की महत्वपूर्ण भूमिका है.
पहले तो ये की भारत अभी तक सक्षम नहीं हो पाया है की वे ऐसे लोगों को उचित सुविधाएं मुहैया करा सके. जो लोग भीख मांग के गुज़ारा करते है, उन्हें पैसे और कोई वास्तु देने वाला एक आम आदमी ही होता है. लोग उस व्यक्ति पर तरस खाकर जितना कुछ हो सकता है, उतने की मदद कर देते है. उनका काम यही तक सीमित होता है और वे अपने जीवन में व्यस्त हो जाते है. कई सारे गैर सरकारी संगठन है जो की इस विषय में कुछ काम करते है. लेकिन उनके पास अकसर वित्तीय सीमितता होती है. साथ ही अंदरूनी सुरक्षा को लेकर ऐसे संस्थानों को शक्कीय नजरों से देखा जाता हैं.
अमूमन सवाल ये हैं की इनके जीवन में बदलाव कैसे लाये जाए? ऐसा क्या किया जाए की ये लोग कार्यरत हो जाए और अपने अपने परिवारों का पालन पोषण कर सके और इनके बच्चे भी स्कूली शिक्षा प्राप्त कर सके. इस विषय पर उचित दिशा में किया जाने वाला निर्णय ऐतिहासिक होगा. हम प्रेमचंद और अन्य बीसवीं शताब्दी की लेखकों से जानते आ रहे हैं की भारत में ऐसे कई लोग रहे आये हैं और इससे भी गंभीर स्थिति में जीते थे. आज अगर सत्तर सालों बाद भी यही स्थिति बनी हुई हैं तो ये चिंता की बात हैं.
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