स्थानीय भाषा

हिंदी कुछ घबराई सी थी. दुपक के एक कोने में सिमटी जाती थी. दिखता था की कोई उसे पूंछता नहीं. उससे अब कोई काम भी नहीं करवाता. 'हाय', 'व्हाट्स अप' और 'हेलो' के बीच लोगों में 'नमस्कार', 'प्रणाम', 'कैसे हो' जैसे सुप्रसिद्ध शब्द लुप्त होते जा रहे दिखते.

क्या हिंदी को उनके वक्ता द्वारा ही मारा जा रहा हैं? या तो फिर ये अज्ञान वस होते जा रहा हैं? मोबाइल की स्क्रीन से लेकर, इंटरनेट में पायी जाने वाली सामग्री अंग्रेजी की विधा लेती जा रही हैं. ये हाल न केवल हिंदी बल्कि अन्य भी स्थानीय भाषाओं के साथ गठित हो रहा हैं. ये हमे किसी भी पुस्तक की दूकान में जाने से मालूम हो जायेगा. जिन्हे लगता हैं की इससे कुछ हानि नहीं, उन्हें शायद इसपे पुनर्विचार करना चाहिए.

कितने ताज्जुब की बात हैं की आज जब हम बुंदेलखंडी और बघेलखंडी में लिखी पुस्तके तलाशे तो इक्का दुक्का किताबें छोड़कर कुछ हासिल नहीं होगा. या तो इन भाषाओं पे काम नहीं किये गए और इनपर कुछ साहित्यिक कार्य नहीं हुआ अथवा ये हो सकता हैं की इनपर किये गए काम को पढ़ने वाले नहीं बचे. आज की दिनांक में जब की अपने स्थान की बोली बोलना 'शर्मनाक' बनाये जा रहा हैं, ये डर बना हुआ हैं की कुछ ही सालों में हम इन्हे पूरी तरह से खो देंगे.

आखिर अगर कोई व्यक्ति गमहि अर्थात गाओ की बोली बोलता हैं तो उसे नीची नज़रों से क्यों देखा जाता हैं? इसपे कोई दो राय नहीं की अंग्रेजी बोलना गलत हैं, लेकिन उसके साथ साथ स्थानीय भाषाओं को नीची नज़रों से देखना बिलकुल भी ठीक कार्य नहीं हैं. ये इन भाषाओं पर अपराध की दृष्टि से देखा जाना चाहिए. इससे न केवल संस्कृति के लुप्त होने का खतरा हैं, बल्कि लोगों पर जबरन अंग्रेजी थोप कर के उनसे खुले मनसे जीवन जीने का अधिकार भी छीना जा रहा हैं. 

यदि मै किसी से ये कहु की, 'कइसन हैं भाई' और 'हाउ आर यु ब्रो' तो इसमें असमानता क्यू हैं? एक को असभ्य ठहराया जायेगा और दुसरे को 'मॉडर्न' अर्थात आधुनिक की संज्ञा मिलेगी. ये एक गलतफहमी हैं जो की किसी रोग की तरह सर में चढ़के नाचने लगी हैं. 

रूस में रशियन भाषा बोली जाती हैं. जापान में जापानीज, चीन में मैन्डरिन बोली जाती हैं. जर्मनी, फ्रांस अन्य बड़े देशों में आज भी भारतीय विद्यार्थी को वहाँ की बोली पे परीक्षा निकालना अनिवार्य हैं नहीं तो वहाँ पे दाखिला नहीं मिलेगा. जाने ब्रिटिशर्स ने भारतीयों पे क्या जादू किया की हम अभी तक अपनी स्थानीय भाषाओ को बोलने में शर्म महसूस करते हैं.

दूसरी बात हिंदी को लेकर यह है की इसे राष्ट्रीय भाषा के तौर पे जबरन थोपा जा रहा है. बार बार मंत्री लोग या हिंदी भाषी लोग ऐसी बात उठाते है की हिंदी को मुख्य बोली बना देनी चाहिए. इससे ये होगा की अदालतों में, सरकारी दफ्तरों में, स्कूलों में इत्यादि हिंदी भाषा पर प्रमुख रूप जोर दिया जायेगा. अब जहा के लोगों को हिंदी बोलते नहीं आती या फिर उन्हें हिंदी बोलने की ललक नहीं है, उन्हें जबरन इसे सीखना पड़ेगा. एक तो यह है की ऐसे लोग जो की दूसरी मातृ भाषा का प्रयोग करते है और उसपे ही अपना प्यार जताते है, वे हिंदी के प्रति दुर्भावना ले आएंगे. ऐसा बल्कि दक्षिण के राज्यों में देखा भी गया हैं. दुसरे प्रांतो में ऐसे में जबरन हिंदी न बोला जायेगा. किसी भी हिसाब से किसी भी भाषा को किसी के ऊपर जबरन धकेल देना एक व्यक्तिगत आक्रमण है. कोई भी संस्था हो उसे ये कोई भी अधिकार नहीं बनता की वो जनता को सिखाये की आप कौन सी बोली बोलो. सरकार को भी अपना दायरा पहचानना चाहिए और ऐसे विवादित वाक्यों को बोलने से पहले लाख बार जतन करना चाहिए. ये लापरवाही के गुण तो है ही और साथ ही साथ ताकत में चूर एक तरफ़ा निश्चय करना भी है. लोकतंत्र में नेता लोग जनता से चयनित करके आगे बढ़ाये जाते है. लोकतंत्र और तानासाही में फर्क है जी.

अगर राष्ट्र की एकता में कोई शक है तो चाहिए ये की हिंदी भाषा जानने वाले राष्ट्र की कोई अन्य भाषा सीखे. वे जब दूसरे प्रांतों में जायेंगे और वहां जाकर उनसे खुले रूप से उनकी भाषा में बात करेंगे तो उन्हें भी दूसरी भाषा सीखने की इच्छा होगी. जो लोग पढ़ने में रूचि रखते है उनके लिए दूसरा साहित्यिक खजाना मिल जायेगा. जो की बाकी बोली बोल लेने वालों से पीछे है, इसलिए की उन्हें हिंदी और शायद अंग्रेजी के ही लफ्ज़ आते है. भारत एक इंद्रधनुष के सामान है, जिसके कई रंग है और वे रंग है इसकी विविदता पे. हमारी भाषाएँ हमारी संस्कृति है. इन्हे बचाना हमारा कर्त्तव्य ही नहीं है बल्कि इन्हे सीख कर उपयोग में लाने से हमारी ही चहुँतरफा वृद्धि होगी. 

जय हिन्द. 

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