कर्फ्यू

कर्फ्यू शाम सात बजे से लगना था. मुझे इसका ग़ुमान नहीं था की हाल ही में सुर्खियों में आने वाले दंगों की स्थिति इतनी पुजोर हैं. मैं घर के बाहर पैदल टहल रहा था. मेरे हाथ में एक हल्का थैला था. मैं लगभग इत्मीनान से चलते हुए और सकपकी से जुलझे लोगों को निहारते हुए सडक से गुज़र रहा था और सात बस बजने ही वाले थे. भीड़ तो थी शहर में जब मैं घर से निकला था. आज मोबाइल फ़ोन घर पे छूट गया था. जेब में पैसे भी ख़त्म हो गए थे. देखते ही देखते कुछ ही मिनटों में सड़के आधी दिखने लगी. लोगों की दुकानों के शटर गिरने लगे. लोगों ने अपने घरों के दरवाज़े और खिड़कियां भी बंद करनी चाही. इससे मेरे हृदय में एक बिजली की गति से धुकधुकी दौड़ गयी. मेरे पाव तेज़ हो गए. उनमे हड़बड़ी चढ़ गयी. मेरा घर ज्यादा दूर तो नहीं था लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे की वो कोसों दूर हो. आज बहुत दिनों के बाद पैदल निकला था. कम्बख्त.

शांत हवा को चीरतें हुई पुलिस के गाड़ी का सायरन दूर से बजता सुनाई दिया. वे लाउडस्पीकर पर लोगों को नियमबद्ध होने की चेतावनी दे रहे थे. लोग डर रहे थे. भागने लगे थे. मैं सडक पर अकेला मेहसूस करने लगा था. मुझे लगा की कही पुलिस मुझी को ना पकड़ के ले जाए. वो हल्का थैला इतना भारी लगने लगा की उसे कही छोड़ के आगे बढ़ने को जी किया. उसमे रखा समान महंगा था. मिडिल क्लास वाला खून रगों में हैं. पुलिस की गाड़ी जब करीब आते जनाई पड़ी तो मैं पास की दो गलीयों के बीच घुस गया. वहाँ पर पहले से कुछ लोग ज़मीन पर ठिठुरे बैठे हुए थे. वे वही सोते थे. उनकी आज की दूकान बंद थी. खाना अभी नहीं बना था. मुझे देख कर उनमे लगभग कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. मेरा परिचय नहीं पूछा गया. वे मेरे लिए सरक कर जगह बनाने लगे. मुझे आत्मीयता महसूस हुई. उनमे बातें हो रही थी की ये दंगे मारपीट क्यू करते हैं, इससे उनका धंधा चौपट हो जाता हैं. वे हर दिन कमा कर के गुज़ारा करने वालों में से हैं.

मैंने अपना थैला दूसरी तरफ उनसे दूर दबा कर रखा था. मैंने अभी तक उनसे कुछ भी बातें नहीं की थी. वे रह रह के हलकी मुस्कान दे देते थे, उसमे भी मैं मुँह फेर लेता या फिर सर हिला देता. पैरों में मच्छर काटने लगे थे. पास ही से एक नाली बहती हैं जिससे शायद हलकी बू आ रही थी या की मेरा बहम था. मेरा मन खाली होने लगा था. एक दूसरे घंटे के बाद सड़के सूनसान हो गयी थी. एक गहरी शांति सब जगह मंडराने लगी थी. अगर लोगों को इतनी ही अपने जान की परवाह हैं तो वे लड़ाई ही क्यू करते हैं?

मेरे साथ बैठे लोगों में एक ही समानता थी. वे पैसे के मारे थे. उनकी कोई ख़ास जात या धर्म नहीं था जिसपे वे चिपकते और फिर उसी का बीन बजाते फिरते. उनकी सर्वप्रथम प्राथमिकता शायद अपने पेट को भरने में थी. उनके पास घर की छत न थी.


कुछ ही देर में मैंने उनसे अलविदा मांगी. उन्होंने कुछ नहीं कहा. यही की थोड़ा और रुक जाओ. मेरे कण कण में लगता था की उन्हें धन्यवाद बोल दू जो की मैं नहीं बोल पाया. वीरान सड़कों से गुज़रता हुआ मैं अपने माले के नीचे पहुंच गया. कमरे का ताला खोल कर सबसे पहले अपने मोबाइल की ओर बढ़ा. उसमे कुछ मिस्ड कॉल थे. खबर थी की कुछ शांतिप्रिय धर्म के इंसानों ने कुछ दूसरे शांतिप्रिय मज़हब के इंसानों का क़त्ल कर दिया. मामला पेचीदा है. 

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