प्रयागराज, हवाईजहाज और कोरोना

प्रयागराज के ऊपर हवाई जहाज आता त्यों मालुम हुआ जब बादलों के काले घने कोहरे के बीच गंगा जी के दर्शन से ह्रदय गदगद हो उठा. नदी का पानी मिट्टी से रिझा हुआ पीला दिखता था और नदी सांप जैसे गुमराई कोसों दूर तक फैली दिखाई पडती थी. ज़मीन दूर दूर तक समतल दिखती थी. जहाज ने उछल के लैंडिंग की और झट से आसमान की उचाईयों को लांघ कर, ऊपर जहाज में बैठ के दिखने वाले चींटी नुमा शहर के हम भी हिस्सा बन गए. धरती में आते ही आँखों का हिपनोटाइज़ गायब हो गया. जिंदगी वापस से यथार्थ में प्रवेश की - आदमियों के बीच, समाज और रीतियों के बीच, ईर्ष्या, ढोंग, मुहब्बत और ग्लानि के बीच. ऊपर से बस यही लगता था की इंसान की कोई औकात ही नहीं हैं और हम अपने घमंड में चकनाचूर हुए मदमस्त हैं. कुदरत के सामने आदमी कितना छोटा हैं! इस धरती का रचयता वसतुतः कोई एक व्यक्ति हो ही नहीं सकता. इसे सदियों से सभी निर्जीव और जीवित प्राणियों के योगदान द्वारा बनाया और बिगाड़ा गया हैं.

नीचे आते ही जहाज के भीतर खलबली मच गयी. मिनटों में ही सभी ने अपना अपना सामान ऊपर के खाचे से निकाल लिया. उनके लिए यात्रा की समाप्ति हो चुकी थी. हालाकी अभी भी जहाज के पट बंद ही थे. लोग जाने क्या जल्दी में थे की अपने आप निकलने की कतार भी लगा ली. कुछ लोग आखिरी फोटो भी ले रहे थे. पायलट का निर्देश आया और साथ ही साथ उन्होंने याद दिलाया की सोशल डिस्टैन्सिंग का उपयुक्त ध्यान रखा जाए और उन्होंने निवेदन किया की क्रमशः बारी बारी से सीटों से उठे और कतार बनाकर बिना उछल कूद के जहाज से निकास करें. याद दिलाया की कोरोना महामारी अभी भी फैली हुई हैं! लोगों के ऊपर से बेचैनी का जिन्ह उतर गया और वे अलसाये वापस से अपने सीट को जा हुए. जय गंगा मैया. जय हो इलाहबाद उर्फ़ प्रयागराज.

एयरपोर्ट के बाहर आ गए थे. स्थायी बोली कान में आचमन कर गयी थी जो की शीघ्र ही दिल तक पहुंच गयी. मन प्रफुल्लित हुआ. वातावरण में नमी थी. एयरपोर्ट में हल्का खौफ वाला सन्नाटा. लोगों ने बाकायदा गमछे का और मास्क का उपयोग किया हुआ हैं. कुछ पुलिस वाले बाबू गले में सीटी लटकाये हुए थे. वो मास्क नीचे करते थे और सीटी बजाते थे. ओला ऊबर वाले मुँह से बुकिंग करा रहे हैं, 'ओला ऊबर, ओला ऊबर.. चाहिए क्या?'. प्रवेश द्वार पे एक कर्मचारी सैनीटाइज़र बन्दूक से लोगो के सामान को स्नान करा रहा था. इससे लोगों की प्रसन्नता साफ झलकती थी. वे ख़ुश थे की उनकी परवाह की जा रही हैं भले ही किसी भी ढंग से. हालांकि शहर का हाल निराला था. कोरोना को लेकर लोगों में भिन्न रूप से जागरूकता हैं. आधे शहर ने मास्क लगाया हैं तो बाकी के आधे ने नहीं.

गंगा तट पे मेला लगा हुआ हैं. मंदिर खुल गए हैं. श्रद्धा का प्रबल प्रभाव सोशल डिस्टैन्सिंग को अपवाद समझें हुए हैं. गंगा चुपके से कुछ हलकी ठंडी बहे जा रही हैं. मानसून के बादल अँधेरी लपेटे हुए नीचे लोगों को ताक रहे हैं. वे कोरोना से अछूते हैं. एक ही समय पर तट के एक सिरे पर ढ़ोल पिट रहे थे और एक कहीं और जगह एक आदमी किसीकी राख़ विसर्जित कर बिलख बिलख के रो रहा था. एक नाच रहा था, एक मन से हार रहा था. ये गंगा के पावन रंग हैं.

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