चुप्पी

एक मिथ्या, एक पहेली में
उनने चुप्पी सांधी हैं
वो पलकें मूँदे रहते हैं
इस काली काली आंधी में

वो हकलातें हैं हफलातें हैं
और कंठ का मान गवाते हैं
ये चुप्पी भरी बेचैनी
वो खुलके गले लगाते हैं

क्यू खून नहीं खौलता उनका
क्यू शामें उनकी हैं हरी हरी
हैं माटी का दामन खून हलाल
क्या निर्धन धन को खाते हैं

रेशम स्याही से अपनी कलाई में
उनने गुदवाया हैं कुछ बड़ा बड़ा
शीशे के प्रत्यक्ष दिन दिन भर
शान-ओ-मिजाज़ खूब जताते हैं

रात की लपटें आय हाय
देखो कितनी बर्बरता
छल्ली किया हैं स्वर्णिम संसार
वो तब भी रौब जताते हैं



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