अंतरिक्ष
आदमी अफीम होता हैं. जिससे जितना बतिया लो, जितना साझा कर लो, जितना मन का बोल दो, उतना अधिक नशीला हो जाता हैं. फिर आदमी खुदगर्ज़ भी होता हैं. वो आपसे दूर जाते वक़्त अपने मतलब की देखता हैं. आदमी अकेला भी होता हैं. अकेले, अपने भीतर किसी मटके की तरहा डुम डुम बातें करता हैं. अकेला आता हैं, अकेले इरादे बनाता हैं, अकेला जाता भी हैं. अंतरिक्ष बगल के कमरे में रहता था. वो आज बोरिया बिस्तर बाँध कर अपने घर को रवाना हो गया. उसका इस बवाल शहर में मन लगना बंद हो गया था. ये इमारतों और आदमियों से भरा हुआ शहर उससे सम्भला नहीं गया. "यहाँ लोग कैसे रह लेते हैं!"... "हमारे वहाँ सब खुला हैं, घूमने के लिए पहाड़ वादिया हैं"... "ये शहर में रहना बोहत कठिन हैं"... "दम नहीं घुटता होगा इनका?" अंतरिक्ष का जाना हलके सुलगते अंगारे की तरह धीमे से चुभने लगा. आदमी दो बार नहीं मिलता. आदमियों से दो बार की मिलने की आकांक्षा करना ही व्यर्थ हैं. आदमी जितना दिन आता हैं, उतना दिन साथ रहता हैं, उतने पलों के लिए समय और जगहा साझा करता हैं. मुझे नहीं मालुम की अंतरिक्ष अब कब दोबारा मिलेगा. शायद कभी...