यात्रा मैहर की
हज़रत निजामुद्दीन स्टेशन दिल्ली से मैहर की ट्रेन जैसे तैसे पकड़ लिए. होशियारी में ज्यादा देर हो गयी. ट्रेन प्लेटफार्म पर लगी हुई थी. पाँच मिनट की देरी से ज़मीन खिसकने ही वाला था. धन्य हो मेट्रो जी का, समय से पहुंचवा दिए. कुछ देर तक धुकधुकी लगी ही हुई थी. मेट्रो से उतरते ही मिल्खा सिंह बन गए थे. दौड़ते दौड़ते दिमाग में पी.एम. 2.5 कणो की बराबर याद आती रही जो की हवा में तैर रहे थे. कोम्प्रोमाईज़ किया और क़दमों की रफ़्तार वही रखी. अब्दुल्ला दीवाना बनके दूसरी ट्रेन में घिस घिस के नही जाना था. धुले हुए जीन्स और कमीज पहने थे. बाल बाल बचे. हाफते हाफते प्लेटफार्म पहुंचे. प्लेटफार्म में साल भर से काम ही चल रहा है. खैर. मुँह सूखा जा रहा था तो पानी की बोतल ले ली.
सोचें थे की समय से पहुंच कर खिड़की के पास बैठेंगे. बर्थ तो लोअर थी लेकिन ऐसा कोई कानून नही है की लोअर बर्थ वालों को खिड़की की ताज़पोशी होती है. कक्ष में पहुंचे तो देखे की पहले से राज गद्दी हड़पी जा चुकी थी. सपने चूर हो गए. 'आगे उतर जायेंगे' वाले यात्री हक़ से हक़ जता रहे थे. ये बता देने पर की एक सीट हमारी रिज़र्व है उन्होंने ही दया फरमायी और थोड़ा सरक गए. पसीना से लतपत थे. कमरे से जैकेट पहन के चले थे. लगा था की रास्ते में ठण्ड लगेगी. ठण्ड ने पहली गेंद अभी तक नही फेकि थी. जैकेट उतार दिए और दो कंधो के बीच एडजस्ट हो गए.
'आप कहा तक जायेंगे?', ये प्रश्न दागा गया. दोस्ती का पहला हाथ बढ़ाया गया था. बोली में बघेली बरपी. हमने उत्तर दे दिया और बात आगे बढ़ाई, 'आप कहा जायेंगे?'... गाड़ी ने सास भरी और कमान से छूट गयी. ठण्ड पानी गले से उतार दिया.
इंतजार था की कब करियायी हवा से दम छूटे और नीले सुहावने बादलो के दर्शन हो. पहले तो ट्रेन शहर की नाड़ी से रूबरू करायेगी. यमुना नाड़ी उर्फ़ नाला पड़ेगा. उसको देख के दिल भी रुंधेगा. बड़ी चौड़ी इमारते दिखेंगीं. झोपड़ीया भी दिखेंगीं जिसका मॉडर्न शब्द है, 'स्लम'. बेहतर था की किताब में घुसा जाए. वही किये. अगले स्टेशन पे कुछ और 'आगे उतार जायेंगे' वाले यात्रीयों ने डाका डाला. दुनिया की अपनी रफ़्तार है, रेलवे की अलग. हमें मंजूर भी है और नामंजूर भी...
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