दिल्ली दरबार

और दिन की अपेक्षा आज शहर जनाई पड़ता है. आसमान साफ है. हल्का नीला है. हवा ठंडगर है. वातावरण खुला है. कुछ त्यौहार जैसा लगता है. है तो बस एक आम दिन लेकिन धुएँ की चपेट से मुक्त है. उजाला है, काली परत नही. शहर आज रविवार का आनंद ले रहा है. सफाई कर्मचारी जो की सुबह पाँच बजे से ही रास्तों में फैले कचरे को ठठोलने लगते है, आज छुट्टी पे लगते है. समझ में आता है की वे ना हो तो क्या होगा. रोड उजड़ी और अपाहिज लगती है जैसे कोई भूखा निर्धन व्यक्ति दूसरे पे आश्रित होता है खुद की जरूरतो के लिए, कुछ वैसे ही है सडक आज. इधर उधर फैले कचरे के ढेर उनकी ही राह देखते है. बाकियों से उन्हें कोई उम्मीद नही.

सच पूछो तो ये शहर की रूह छिंद छिंद हो रखी है प्रदूषण से. साफ हवा प्रकृति का अधिकार है, मानव का बाद में. इसके बिना इसकी सज्जा पे प्रहार हो जाता है, बिन बताये बिन बुलाये शहर के सौंदर्य को बुढ़ापा चढ़ जाता है. अन्य जगहों पे प्रकृति के अछूते रूपो को देख यही मालूम होता है की वो विविधता को ललायत है. इस धुएं भरे वातावरण में पंछी नदिया सभी ही दूषित है. ये ईक्कीसवी शताब्दी ही है...

बाज़ार वैसे ही चल रहा है. लोग उसी गति से अपनी मोटर गाड़ियां भगा रहे है. जानने वालों ने मुँह पे मास्क लगाया है. अच्छा ही है, लोगों को मुँह नही छुपाना होगा. जान के अनजान बने रहने में ही भलाई है. लेकिन कब तक? आज नाक बंद हुई है, कल सास बंद हो जायेगी. इसमें कोई दो राय नही की शहर के साथ लोग भी बुढ़ाये जाते है. हालांकि इसमें अंतर है. शहर की उम्र बहुत लम्बी है और वे बीमार होने के बाद एक दिन स्वस्थ हो सकेगा. लोगों का क्या? 'जाओ जाके किसानो को कहो की खेतों में आग न लगाए'... 'नेताओं से बोलो की कुछ करें'... गज़ब का द्वन्द है. 'पहले आप' की संस्कृति अभी भी जीवित है.


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