लोकतंत्र और भारत
लोकसभा चुनाव एक प्रत्यक्ष तरीका है जिसमें सारे देश वासी केंद्र की सरकार चुनते है. चुनाव में अपनाये मापदंड ये निर्धारित करते है और अंकित भी करते है की लोकतंत्र कितना काबिल है और कितना पाक है.
सालों से जनता तक अपनी बात पहुंचाने का तरीका बदला है. सोशल मीडिया के जरिये लोगों तक पहुंचना आसान और किफायती भी हुआ है. अब किसी रैली में कोई प्रत्याशी भाषण देता है तो सारे देश भर में लोग उसे सुन सकते है. इससे दोगलेपन की बीमारी का इलाज थोड़ा मुमकिन हुआ है और जबावदेही बढ़ी है. हालांकि गंभीर बात ये है की इस प्लेटफार्म का उपयोग गलत समाचार और हेट स्पीच परोसने के लिए भी धड़ल्ले से किया जा रहा है.
चुनाव एक ऐसा समय भी है जिसमें जनता और-दिन के अपेक्षा राजनीती को लेकर जुझारू रहती है. ऐसे में ये एक स्वर्णिम समय भी हो सकता है जब आम जनता, पार्टियाँ और प्रत्याशी देश की समस्याओं पे प्रकाश डालें, और आगे बढ़ने के रास्ते खोजे जाए. ऐसे समय में बातें ज्यादा लोगों के पास पहुंचेगी. चुनावी मुद्दा और मैनिफेस्टो इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है.
भारत की राजनीती विकसित हुई है. इसके बावजूद भी कई पदार्थ ऐसे है जो निरंतर खिलवाड़ करने की कोशिश करते रहते है. देखा ये जाना चाहिए की भारत कैसे नये रंगों को अपनाता है. ना केवल नेताओं बल्कि जनता पे भी इसका पूरा कर्त्तव्य है की सही दिशा दि जाए. कुछ बड़े मुद्दे है जैसे की - जल वायु प्रदुषण, शिक्षा, स्वास्थ्य, पनपती गरीबी, भूख और वेतनों की बढ़ती खायी. कुछ चौका देने वाले आंकड़े, जैसे की गए तीन वर्षों में गटर साफ करते वक़्त फस के मरने वालों की संख्या 1500 है. क्या इससे ये ताज्जुब नही लगता की ये आतंकवाद से भी गंभीर समस्या है और फिर भी इस्पे मुख्य मीडिया पे कोई चर्चा नही है? ये भी तो भारतीय है. ऐसा क्यू की इन्हे नाकारा जाता है?
गाँधी ने कहा था की भूखे आदमी को धर्म सीखाना अमानवीय है. ये ध्यान देने वाली बात है की ये बात आज इतने सालों बाद भी लागु होती है.
हर भारतीय को संविधान की छाव के तले अपनी बात कह देने का पूरा हक़ है. यदि वो अपनी बात शांति पूर्वक कहने में असमर्थ है या तो उसे ऐसा करने से रोका जाता है तो ये गंभीर बात है. भारत पूरा तब है जब सबके सब 130 करोड़ लोग चैन से सास ले सके. जैसा की हाल ही में न्यूज़ीलैण्ड की प्रधानमंत्री ने एक आतंकी हमला के बाद कहा - "जब शरीर के कोई अंग को हानि होती है तो सारा शरीर प्रभावित होता है".
सालों से जनता तक अपनी बात पहुंचाने का तरीका बदला है. सोशल मीडिया के जरिये लोगों तक पहुंचना आसान और किफायती भी हुआ है. अब किसी रैली में कोई प्रत्याशी भाषण देता है तो सारे देश भर में लोग उसे सुन सकते है. इससे दोगलेपन की बीमारी का इलाज थोड़ा मुमकिन हुआ है और जबावदेही बढ़ी है. हालांकि गंभीर बात ये है की इस प्लेटफार्म का उपयोग गलत समाचार और हेट स्पीच परोसने के लिए भी धड़ल्ले से किया जा रहा है.
चुनाव एक ऐसा समय भी है जिसमें जनता और-दिन के अपेक्षा राजनीती को लेकर जुझारू रहती है. ऐसे में ये एक स्वर्णिम समय भी हो सकता है जब आम जनता, पार्टियाँ और प्रत्याशी देश की समस्याओं पे प्रकाश डालें, और आगे बढ़ने के रास्ते खोजे जाए. ऐसे समय में बातें ज्यादा लोगों के पास पहुंचेगी. चुनावी मुद्दा और मैनिफेस्टो इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है.
भारत की राजनीती विकसित हुई है. इसके बावजूद भी कई पदार्थ ऐसे है जो निरंतर खिलवाड़ करने की कोशिश करते रहते है. देखा ये जाना चाहिए की भारत कैसे नये रंगों को अपनाता है. ना केवल नेताओं बल्कि जनता पे भी इसका पूरा कर्त्तव्य है की सही दिशा दि जाए. कुछ बड़े मुद्दे है जैसे की - जल वायु प्रदुषण, शिक्षा, स्वास्थ्य, पनपती गरीबी, भूख और वेतनों की बढ़ती खायी. कुछ चौका देने वाले आंकड़े, जैसे की गए तीन वर्षों में गटर साफ करते वक़्त फस के मरने वालों की संख्या 1500 है. क्या इससे ये ताज्जुब नही लगता की ये आतंकवाद से भी गंभीर समस्या है और फिर भी इस्पे मुख्य मीडिया पे कोई चर्चा नही है? ये भी तो भारतीय है. ऐसा क्यू की इन्हे नाकारा जाता है?
गाँधी ने कहा था की भूखे आदमी को धर्म सीखाना अमानवीय है. ये ध्यान देने वाली बात है की ये बात आज इतने सालों बाद भी लागु होती है.
हर भारतीय को संविधान की छाव के तले अपनी बात कह देने का पूरा हक़ है. यदि वो अपनी बात शांति पूर्वक कहने में असमर्थ है या तो उसे ऐसा करने से रोका जाता है तो ये गंभीर बात है. भारत पूरा तब है जब सबके सब 130 करोड़ लोग चैन से सास ले सके. जैसा की हाल ही में न्यूज़ीलैण्ड की प्रधानमंत्री ने एक आतंकी हमला के बाद कहा - "जब शरीर के कोई अंग को हानि होती है तो सारा शरीर प्रभावित होता है".
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