लोकतंत्र जोड़-तोड़

पिछले साल दिसंबर में मेघालय की एक कोयले की खान में पंद्रह लोग फस के मर गए. करीब तीन महीने तक उनके शरीर को तलाशा गया और कुछ ही बाहर निकाल पाए गए. बाद में ऑपरेशन रद्द हुआ और बाकियों को वही छोड़ दिया गया. कारण यह की उन्हें निकाल पाना बस के बाहर हो गया. ये खदाने रैट-होल के नाम से प्रसिद्द है. 2015 में एन.जी.टी. संस्था ने इन खदानों में प्रतिबन्ध लगाया था क्युकी इसके कई कारण थे. जैसे की आस पास के जल श्रोतों को नुक्सान हो रहा था और वे प्रदूषित हो रहे थे. जिस तरीके से यहाँ कोयला निकाला जाता था वे अमानवीय था. ऐसा नहीं की यहाँ पहली बार लोग फस के मरे, ऐसे हादसे होते रहते है, बस इस बार थोड़ा मीडिया में आ गया. हो कुछ भी, ये खदाने गैरकानूनी ढंग से चालू है. जो मर गए उनके घर वालों को एक लाख का मुआबजा देकर कंधे से झटखार दिया गया. अभी पिछले महीने असम में करीब 150 चाय बागान के मजदूर नशीली शराब पी के मर गए. जी हां 150. अब भूला दिए गए. चर्चा में नहीं है. इनका चर्चा में होना मायने नहीं रखता.

ऐसे ही छोटे बड़े कई घटना क्रम होते रहते है जिसमे कई मजदूर और गरीब बस मर जाते है और उन्हें भुला दिया जाता है जैसे की उनका निरस जीवन एक कठपुतली की तरह हो, जीवन न हो. कठपुतली तो है ही क्युकी जन्म से लेकर मरने तक वो न तो अपने पसंद का कुछ खा सकते है, न पढाई की सुविधा है, रहने के लिए एक घबराई सी छत है, या वो भी नहीं. ए.सी., कूलर, बिजली, साफ़ पानी, इज्जत, साफ़ कपडे, नए जूते आदि इनके नसीब में नहीं है. इनका जन्म गलत परिवार में हो गया और ये मजदूर ही बनकर रहेंगे.

दुनिया के सबसे बड़ी लोकतंत्र में चुनाव होने वाले है और शायद ये समय भी रहेगा जब सारी पार्टियों द्वारा डंका बजाया जायेगा, अंड-शंड बातें होंगी, बेपरवाह वादे होंगे और आखिर दिन शायद शराब-पैसे देकर वोट खरीदे जायेंगे. पांच साल पहले भी यही हुआ था और ऐसे ही बस कढ़ेलते हुए 70 साल हो गए. नतीजा ये की संसद में एक तिहाई से अधिक लोगों का गंभीर अपराधी इतिहास है. हाल ही में एक सांसद ने अपने क्षेत्र के एक विधायक को भरी सभा में, मिडिया के सामने पैरों से चप्पल निकल के कूट दिया. उनका कहना था की ऐसे कई विधायकों को उन्होंने बनाया है. ध्यान देने वाली बात ये है की उनपे कोई कार्यवाही नहीं होती है और ऐसा बरताओ करने के लिए पार्टी वक्ताओं से न ही कोई टिपण्णी आती है. एक ऐसा चित्रण बन चुका है की भारतियों के लिए ये एक बहोत ही आम बात है. ऐसे में सवाल ये है की लोकतंत्र की आड़ में हम कहा जा रहे है? ये कौनसा वर्ग निकल के आया है और इनके पास इतने ख़ास अधिकार क्यों है? अगर चप्पल मारने वाला कोई और होता तो क्या इसे भी नकार दिया जाता? जवाब हम सब जानते है और ये एक कड़वा सच है.

सवाल लोकतंत्र की जवाबदेहि पे आ खड़ा हुआ है. ये बात साफ़ है की भारत में राजनीति की हवा बहती है और राज नेताओ के भाषणों को जनता खुले कान से सुनती है.

ऐसे में क्या इस लोकतंत्र से कुछ आशा की जा सकती है? गरीबी हटाने के लिए और कितने वर्ष इंतजार करना होगा? लोगों को सही माईने में सामान अधिकार कब मिलेंगे और कानून के सामने सभी एक जैसे कब माने जायेंगे? जी हजूरी कब तक चलेगी और जोड़-तोड़ करके तथ्य कब तक परोसे जायेंगे?

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