सरकती हुई शाम

सरकती हुई शाम,
अँधेरे की बाहों में 

झुलझता हुआ ये मेरा दुखी मन 

थकी थकी सी आँखें 
पलकें उठाकर, घूरता रहा मै, 
बड़ी देर तक 
बेबस सा 
डूबते सूरज की ओर 

चाहता था की शाम बनी रहे 
ऐसे ही 
ऐसे ही ये कसमकस कायम रहे 
ऐसे ही,
आँखों से बता रहा था जाते सूरज को
मना रहा था 
रुक जा थोड़ा, ऐसे ही  

वो भी थका थका था 
कम दमक रहा था 

ये लालिमा आसमान में 
अभी उतरी नहीं है 
पूरी तरह से मन में 

और फिर 
अभी वक़्त ही कितना हुआ है 

तो क्या की सर्दी आ गयी 
थोड़ा ठहर जा, मेरे लिए 
कोहरे की चादर भी आ रही, तुम्हारे जाते जाते 

कब रात ने आसमान ओढ़ लिया 
कब तुम धीरे धीरे सरक गए पहाड़ों के पीछे 

चाँद को भेजकर अपनी कमी पूरी कर रहे हो?
हां ये तुम्हारी ही रौशनी है 
मालुम है मुझे।  










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