दरपन

"हम सब पागल हो गया हैं", एक पागल ने दरपन के आगे कहा.

दरपन ने भी यहीं कहा, "हम सब पागल हो गया हैं"

पागल का विश्वास मजबूत हो गया. दुनिया पागल हो गयी हैं. ये आदमी भी यहीं कहता हैं.

बहोत दिनों बाद किसी से बात की थी जिसने उसकी बात का उत्तर भी दिया. वो अपनी छवी पर अविज्ञा से तरस करता हैं और दोस्ती की गाँठ बाँधने के लिए कुछ और दिल की बात कहता हैं.

"मुझे पेट में दर्द होता हैं"

दरपन ने दोहराया, "मुझे पेट में दर्द होता हैं"

"तुम्हें भी भूख लगी हैं!", "हां", दरपन और पागल आदमी साथ में प्रतिउत्तर करते हैं!

बस फिर क्या. उसने घंटे भर अपने आप से, अपने दरपन से गप्पे साठी. फिर थक गया. बैठ गया. सिकुड़ गया. भूख तेज लगने लगी. शरीर कमजोर, शक्ति शिथिल. जब एक दो घंटे की गहरी नींद के बाद उठा, जपड़बाज़ी में अपने नये मित्र को देखने हुआ की वो हैं भी की नहीं. वो वही था. उसकी तरह वो भी व्याकुल था, अकेला था, हारा हुआ था, नंगा था, कमज़ोर था... लेकिन आज कैसी हार? आज तो एक नया दोस्त मिला हैं जो दिल की बात पूछता सुनता हैं, साथ नहीं छोड़ता.

"भूख", मुँह बनाकर, पेट में गोलाकार हाथ फेरते हुए कहता हैं. दरपन के उस तरफ भी उसकी छवी वैसे ही करती हैं. वो पेट में हाथ फेरते रहता हैं, अपना मुँह बनाता हैं, आँखें मटकाटा हैं, सर के ऊपर हाथ रखता हैं, झुकता हैं, डगमगाता हैं, कमर मटकाता हैं, नाचने लगता हैं, कूदता हैं, आवाज़े निकालता हैं, थक जाता हैं और फिर बैठ जाता हैं. आज खुश हैं. मुस्कुराता हैं. आज नया मित्र मिला हैं. अच्छा मित्र. प्यारा मित्र. अब वो अकेला नहीं हैं. दिन कितना अच्छा हैं. दोपहर तेज हैं. एक बार फिर सो पड़ा.

जब नींद टूटी तो शाम ढलने को थी. शहर के इस कोने में जहा शीशा लगा हैं, बड़ा भीड़दार इलाका हैं. आज रविवार को बंद रहता हैं. कल खुलेगा. शीशा नाई की दुकान का हैं. आज दुकान बंद हैं.

रात का अंधेरा तनने लगा. दोस्त? हो वही? हैं. वो भी हैं. चलो अच्छा हैं. रात को जब कुत्ते भोकेंगे तो डर नहीं लगेगा. वो दौड़ाएंगे तो दोस्त से कह देगा. "तुम्हें कुत्तों से डर तो नहीं लगता?"..."नहीं!".. दोनों हस्ते हैं. भगवान सब दिन थोड़े ही नाराज़ रहता हैं. उन्ही की कृपा हैं.

आज कुछ नही खाया. पानी भी नहीं पिया. गला सूखा हुआ हैं. चमड़ी खुर्दरी हो गयी हैं. बाल काटे की तरह नुकीले हैं. शरीर में मांस नाम मात्र को शेष हैं. वो यहाँ सुबह दौड़ते दौड़ते कुत्तों से पीछा छुड़ा के आ पंहुचा और भटक गया. दरअसल वो साब जगह ही भटका हुआ हैं. हर गली में फस जाता हैं. आज की भटकन में उसे नया दोस्त मिला. शारीरिक सुविधाओं का पता नहीं, लेकिन आज मानसिक सुख मिला हैं. ढेर सारी बातें की हैं और बहोत हँसा हैं. पागल थक कर गस्त खा कर फिर सो गया.

"उठ.. चल भाई.. ऐ.. चल वहाँ जाकर सो.. भोर हो गयी.. दुकान खुलेगी यहाँ!.. ऐ..!", नाइ आ गया हैं, उसे उठा कर कहीं और भेजना चाहता हैं. पागल लड़खड़ाते आँखें मीँजते उठता हैं, अपने दोस्त से मिलता हैं, वो भी सो के ही उठा हैं. वो वहाँ से चले जाता हैं. पागल को हिंसा बात पसंद नहीं. हिंसा से, गाली से, लाल क्रोधित आँखों से, दुत्कार से डर लगता हैं. वो अब अपने दोस्त को पहचानता हैं. अब जहा गलियों मोहल्लो में, बाज़ारो में कांच दिखता हैं, उसका साथी उसके पास रहता हैं.

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