सकरी गली की यात्रा
यहाँ इस शहर में गलियों, मोटर गाड़ियों और इंसानों की कोई कमी नही है. हर एक गलियों की अपनी कहानी और जीवनी है, क्यूकी उस एक पतली गली में लोग बस्ते नही, पनपते है. अब आप चाहे इसे अंग्रेजी वाला स्लम कह लीजिये, या बस गली ही रहने दीजिये जिसमें शहर का कुछ और ही रूप निखरता है. कल जब मैं रात में वापस लाइब्रेरी से घर को जा रहा था, मैंने एक ऐसी ही गली ढूंढ निकाली और वहा से गुज़रते हुए, किताबों से असल ज़िन्दगी में पलायन किया.
घुसते ही गली के सीमा में, कुछ चार पाँच कुत्ते पहरा देते बैठे हुए थे. उन्होंने मेरा मुआयना किया और दूसरी तरफ मुँह फेर के हरी झंडी दिखा दी. मैं निडर होके आगे बढ़ गया. बाई तरफ एक स्टोर था, जिसमें पुराना नीला रंग पुता हुआ था. बाहर ठेले में दो व्यक्ति गद्दा बिछाए गुड नाईट महसूस कर रहे थे. अंदर स्टोर में तीन चार लोग एक दुसरे के तरफ मुँह किये हुए पंचायत छाट थे. अब मैं तो चल रहा था, सेकंड भर में अगला दृश्य आया. वहा समोसे बना रहे थे कुछ लोग. दरअसल शहर की इन छोटी गलियों में दूसरे छोटे गांवों और कस्बों से काम की तलाश में लोग भर-भर के बरस आते है, और कोई नाते-रिस्तेदार, चेले, दोस्त के पास लदरते रहते है. कमरा एक ही रहता है, लोगों की कोई गिनती नही होती. बॉर्डर मूवी में जैसे सैनिक चिट्ठी पढ़के घरवालों की सुध ले रहे होते है, यहाँ भी कुछ वैसे ही हाल होते है. बस इनकी मजदूरी की सैनिक जितनी अहमियत नही होती. लोगों को लगता है की सारी मुसीबतें देश की सीमा पर ही है. देश की अर्थ व्यवस्था तो भूत कढ़ेल रहे है. एक भाई साहब कान में इयरफोन ठोसे वीडियो में बतिया रहे थे, मतलब भारत में अब बियारी के बाद पान की जगह वीडियो चैटिंग होती है.
आगे कुछ घरों का सिलसिला लगा. एक बाबा कमर टेढ़ी किये बीड़ी सुलगा रहा था. आगे कुछ लोग ज़मीन पे बैठे ताश खेल रहे थे. एक चौराहा आया, नन्हा सा, खाली ही लगा, लेकिन मेरे निकलते-निकलते, तीन गाड़ी धूम मचा के फर्र हो गयी. कुछ बीते भर किराने की दुकानों में भीड़ लगी थी.
'मम्मी फ़ोन मंगा रै' - एक बच्चा कच्छा पहिने भागता हुआ आया और कुर्सी पे बैठे शायद अपने पिता से फ़रमाया. 'भग यहां से', उन्होंने कुछ खीज से मोबाइल देते हुए आवाज़ लगायी. बड़ा अजीब तरीका था. बच्चा ख़ुशी से भीतर दौड़ गया. जब चिकन की दूकान, अंडा वाला, पानी वाला इत्यादि गुज़रे, तो एक खटिया में बैठे हुए एक बूढा व्यक्ति जिसकी बड़ी दाढ़ी थी, लुंगी और बनियान पहिने था, कूकी मार रहा था. वो शायद दूसरों पे निर्भर है और किसी को घर के भीतर से बुला रहा था. उसके मुँह से कुछ चू रहा था. बगल में कटोरा था जिसमें कुछ खाने को था. मैं गली से निकल कर रोड पार भी कर गया, वो तब भी कूकी मारता रहा. उसकी आवाज़ एक बिजली सी थी.
पिछले महीने मम्मी आयी थी तो कह रही थी की इस शहर की भीड़ देख के उन्हें अकबकाई होती है..
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