लोकल ट्रेन के सन्दर्भ में आदमी
ये लोकल ट्रेन में बैठे बैठे आदमी जाने किस ख्यालो में खो जाता है. शायद बैठने को मिल गया इसका कोई मर्म एहसास उसे कायल कर देता होगा. या घर और करीब है इसकी अनुभवता पे दिलचस्पी छा जाती होगी. आँखें खोई हुई, चेहरे में कोई सुर्खिया नहीं. और कभी अचानक से चलते सफर को गौर से निहार लेना. आदमी ख्यालो में गुम है ये बड़ी बात है. आदमी या तो गुमसुम दिखता है या अपने फ़ोन को देखता है. फ़ोन तो कैद है हमारी. हाँ.. हाल में यही महसूस किया. मैंने सोचना छोड़ दिया है. मै अब बस देखता हूँ. फ़ोन की स्क्रीन में. कई कई देर तक. लोकल में बात करने वाले आदमी भी दिख पड़ते है. इनमे बड़ी गहराई होती. इनकी बाते राजनैतिक है, सामाजिक है हर प्रकार से. जैसे अर्थशास्त्री माइक्रो और मैक्रो के स्तर में जाके अर्थव्यवस्था को समझते है, वैसे इन सब बातो में माइक्रो-सामाजिक बाते होती है. लेकिन हाँ भाईचारा देखो तो. आप बोल दे की मेरा बैग प्लीज़ वहा पे रख दो, या प्यार से पुचकारते हुए ज़रा सी जगह बनाने की दरख्वास्त कर दो.. आदमी हो जाते है. एडजस्ट. लड़ाई भी है पर अपनी जगह. मै तो चाहता हूँ की लोकल ट्रेन टाइम्स के नाम पर कोई पत्रिका ही छपन