हवा पानी बोलो बोलो

आज छह बजे उठे. जाड़े के दिन है तो आसपास की जगहों से बराबर चीज़ो की, गतिविधियों की, वार्तालापो की आवाज़े आती रहती है. पहली आवाज़ आज पानी के गिरने की थी. सामने वाली ईमारत की टंकी भर गयी है. पानी बेह रहा है. पानी बहे जा रहा है. बाहर भीषण शांति है. कमरे का पंखा बंद है. कमरे की खिड़की बंद है. मेरी आँख पानी के गिरने की आवाज़ के साथ खुल गयी. ऐसा लग रहा था जैसे की कही पे ज्वालामुखी फट रहा हो और उससे आग में भून देने वाला मलवा बाहर आ रहा हो. बेचैनी हो रही थी. पानी बस बहे ही जा रहा था. बिल्डिंग के लोगो ने अभी इसकी चेतना नहीं की थी. सो रहे है शायद. 

कम्बल छोड़ मै उठ बैठा. "कितनी लापरवाही है बताओ!". हलकी ठंडक का एहसास हुआ. कम्बल एक तिलसमी चीज़ है. भारत में ये सबके पास नहीं होती. होती भी है तो सबकी उतनी कारगर नहीं होती. मेरी वाली रेशम सी महसूस होती है. ये बोरे की तरह गड़ती नहीं है. मैंने अखबार में लोगों को ठण्ड की चपेट से मर जाने की खबर पढ़ी है. " शहर में शीत लहर से तीस की मौत". हर रोज़ पानी के ख़तम हो जाने के बारे में भी खबर आते जाते रहती है. इस देश के आधे से ज्यादा लोगो को साफ शुद्ध पेय जल की प्राप्ति नहीं है. एक सौ तीस करोड़ के आधे. साठ करोड़ बिन शुद्ध पानी के. हे राम. सुबह उठते होंगे तो वे क्या सोचते होंगे? तालाब? कुइया? नदी? नाला? क्या? पानी. लाना है. कहते है की शहर का पानी ख़त्म होने वाला है. "ऐसे कैसे ख़त्म हो जायेगा? इसकी ऐसी की तैसी!", सोते हुए लोग शायद यही कहे. पानी. मलवा. बेचैनी. 

"अभी देखता हूँ". कम्बल की सकुशल छाया से बाहर निकला और  कमरे की फर्श पे पैर रख दिए. फर्श बर्फ की भाति ठंडी थी. "हे भगवान". लोग शायद जागते होंगे और ठण्ड के चले जाने का इंतजार करते होंगे की तब मोटर को बंद कर दे. खिड़की से बाहर का नज़ारा भी दिखता था. कोई सब्जी वाले और फेरी वाले की आवाज़ नहीं आती थी. नीचे गली में कोई झगड़ नहीं रहा था. आंटी जी लोग अपने बालकन से गप्पे नहीं मार रही थी. उनकी बालकनी सूनी थी. टंकी फुल. इत्मीनान से. कुत्ते भोंक भोंक कर बेतहाशा थक के शांत हो चुके थे. एक अलसाई हुई, थकी हुई, डरी हुई सुबह सामने थी. सूरज को ये नहीं सोचना होता की निकलू की नहीं. रोज़ सुबह झट से किसी ईमारत के बाजू से निकले चले आते है. जैसे सूरज फ्री के है, वैसा काश पानी भी होता.. 

खिड़की से नीचे झांका, "अरे रे रे.. कब तक बहेगा". घर एक, टंकी चार. एक टंकी साफ पानी से सुबह कार चमकेगी. आसमान नीला होने को है. चाँद अभी पूरे ग़ुमान में है. बल्ब सा लटक रहा है. जब सूरज आएंगे तो अपने आप गुम हो जायेंगे रात तक के लिए. जब पेय पानी ख़त्म हो जायेगा, तब क्या? कुछ तारे भी दिखते है. "आज तारे दिख रहे है?"... "कही आज प्रदूषण कम तो नहीं?".. "क्या पता".. सारा दिन सुबह जैसा भी तो नहीं हो सकता. सुन्दर. शांत. और फिर कितना पानी गिरने देंगे. सूरज जी आईये. हमें मोटर बंद करनी है. 


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