आम आदमी
शहर अब कई हिस्सों में बट गया था. जगह जगह से विभिन्न तीख़े नारों और श्लोकों की गूंज आ जा रही थी. सभी लोगों और गुटों का यही मानना था की वो सही हैं और उनका सत्य ही सच्चा सत्य हैं. उन्हें दूसरों के सत्यों से घिन होती थी और वे रह रह के एक दूसरे को विचरित वाक्यों और उपनामों से सम्बोधित कर रहे थे. दोनों ही एक दूसरे के लिए प्रदूषण थे, आँखों का काटा थे. शहर उबल रहा था और उबाल खाते इस शहर से कइयों को बेमतलब हानि पहुंच रही थी. वे व्यक्ति जो किसी भी रूप से किसी भी गुट से नहीं मिलना चाहते थे और शांति प्रिय थे, वो सबसे अधिक छतीग्रस्त थे. उनकी आम जिंदगी और सुगंधपूर्ण दिनचर्या में परिवर्तन हुआ था. अक्सर ही मुठभेड़ में वे दबाये कुचले जाते थे, खदेड़े जाते थे. उन्हें बाकियों की आम खायी गुटली के सिवा कुछ नसीब नहीं था. वो शांति से तड़पते रहे आये.
रात्रि में जब आसमान की काली चादर, लाल पीले रंगों की मसाल से लौ बुद्ध हो उठती थी और कान फाड़ देने वाली चीखे शहर के कोने कोने में फस कर रह जाती थी तो इन प्राणीयों की नींद भी हराम हो गयी थी. बात अब ये हो रही थी की इस जलन, मतभेद, ईर्ष्या और घृणा का क्या उपाय हैं? जिनका धैर्य चरम पे था, उनके भी मुँहों से नारे भिनभिनाने लगे थे और उनकी नाड़ीया गरम हो चली थी. आखिर कब तक, आखिर कब तक?
ऐसे ही एक हसीन बदसूरत शाम में, शहर के एक कोने से आवाज़ आने लगी - "मेरे भाई लोग, मेरे बहन लोग.. मुझे लूटा गया हैं, मेरे कपडे फाड़े गए हैं. मुझे सरेआम बेइज्जत किया गया हैं. मेरे बदन में अनगिनत खरोचे हैं और छाले आ गए हैं.. ये देखो.. यहाँ.. यहाँ.. और यहाँ भी.. हर पसली से आह की आवाज़ आती हैं. मुझे रात की चांदनी में और दिन के उजाले ने बेघर किया. मैं कौन हूँ?", उसके मुँह से लार टपक रही थी, आँखें चौंधीयाई हुई थी, हड्डियों में नाम मात्र ही मांस शेष था और उसकी आवाज़ में एक अजीब से सकपकाहट थी.
वो आदमी भाग भाग के हाफ हाफ के अपनी बात दूसरों को बताना चाह रहा था. लोग उसे तिरछी निगाह से देख रहे थे. वो लोगों से आँखें मिलाना चाहता था और पूछना चाहता था की "मैं कौन हूँ? मुझे इंसान बनने की मजूरी क्यू नहीं हैं?" लोग अपनी राग और ताल में धुत रहे आये. उसकी आवाज़ आधी रात को शांत हो गयी... वो आम आदमी था. सदमे में था. जाकर के किसी कोने में थक कर के सरफ़रोशी में गुम गया था.
Comments
Post a Comment