रुक जा ऐ जिंदगी

उस रात बहुत दुखी था मैं
मन बहुत भारी था
अकेलापन लग रहा था
नींद नहीं आ रही थी
सिर्फ अपने आप पर तरस कर रहा था

ये क्या कर दिया जिंदगी ने मेरे साथ
"मैं" ही क्यों?
"मैं ही क्यों?"
मन में बार बार गूँज रहा था
साली गद्दार जिंदगी

खाना नहीं खाया
और लाचार होना चाहता था
हे भगवान्
कहा है तू
इतनी पूजा की तेरी... इतने लड्डू चढ़ाये
देख कितना दुखी हु मैं
देख
भगवान्... देख
मूर्तियों में आँखें मिलाकर देखा
बहुत चाहा की कुछ तो हो...
एक दफा मूर्ती हिलाई भी... क्या करता
कही से कोई आवाज़ आये
तू बहरा हो गया क्या रे मेंरे भगवान्
तू...
गुस्सा और लाचारी
ये कौनसी रिपोर्ट आ गयी
ये क्या हो गया
अब क्या होगा

रात होती चली
सब लोगो को नींद लग गयी थी
मुझे भी
मुझे भी... नींद
आने वाली थी
आने वाली थी... रे

"ऐ जिंदगी गले लगा ले"... ये कौन फुसफुसाया
"हारी बाज़ी को जीतना जिसे आता है"...
"वो सिकंदर ही दोस्तों कहलाता है"
.
.
आभास हुआ.. एक पेचीदा एहसास
मैं ही क्यों? मैं ही क्यूँ? मैं...
मैं सँवर जाऊँगा
ये वक़्त गुजरेगा
घटा छटेगी
मिसाल बनेगी... मैं बनाऊंगा

रुक जा ऐ जिंदगी... तेरा भेद मैंने जाना
रुक जा ऐ जिंदगी... देख मैं कैसे संवारता हु
समय... समय... समय... ये भी गुजरेगा
कल और दिन आएगा
जो आज भी है, वो मेरा है
जो कल है, वो भी मेरा है
और तू देखती रह, मैं क्या से क्या बनता हु
हा हा हा

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