नाजुक आदमी
मै हठ करूँगा. मुझे नवीनीकारण नहीं अपनाना. मै माटी की भूमि मेँ नंगे पाव घूमना चाहूंगा. मेरे लिबास में मुझे कोरी सफ़ेदी मंज़ूर है. रात होते ही मै लालटेन की रौशनी मे रहना चाहता हूँ. घर हो, घर मेँ खुला आँगन मयस्सर हो, लोग हो. रात की चांदनी रात मे घी लगी रोटी के साथ आम का आचार मुझे जचेगा. बर्गर, पिज़्ज़ा, अन्य कोई व्यंजन की उम्मीद नहीं. घर की पाली हुई गाय का दुग्ध मिलेगा तो मै चूल्हे की लौ मेँ उसे गरम करके खाने मेँ खा लूंगा. भूखे रहने की आदत छूट गयी है. आदि मानव हमारे पूर्वज रहे और हमें एक घंटे प्यास से नहीं रह पाएंगे, शायद मर ही जाए तो ताज्जुब नहीं. इतनी सुविधाएं किस लिए. भूख का होना ही तो जरूरी है. घंटो भूखे रह लिए तो थाली का एक दाना छोड़ दे कोई तो मै इफरात मानु. अब हम नाजुक है. चार कदम चलना, आठ मिनट भूखे रह पाना, सोलह मिनट गर्मी झेलना यही रह आया है बस. मै हठ करूँगा. कोई तो समय था जब ना रेलगाड़ी थी, हवाईजहाज तो छोडो. क्या दिवाली घर मेँ मनाते, कितने मुसाफिर ही हो गए, कितने साल मुँह ना देखा. अब कहते है की जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं, इनसे उनसे सबसे मिल लो, कौन कब जा गुज़रे. गुज़रे तो गुज़र