Posts

Street Hawker's Ease-comm at danger?

Image
This is the center of the marketplace in my native town. The man is a street hawker who is selling kid's play items. The picture is taken one day after the Diwali night. Almost the whole market was closed but in this one place, few food shops were grouped. While eating the Paani-puri there, I had this intriguing gaze put at the flying balloons. I have seen that in small towns during the festives, there are certain traditional days (pareva) where markets are shut and people do not move out much. In big cities, this is not much cared for due to the cosmopolitan behavior of the city.  Anyway, I was checking several posts related to a coconut seller reducing the prices of the coconuts and same time advertising in the cardboard that he is selling at a lesser price than Q-comm sellers like Zepto and Blinkit. To me, it was concerning for some reasons: - first, will it come to this? Let's see.  - although change is a constant, there is a lack of financial cushion at levels of street ha

नाजुक आदमी

Image
  मै हठ करूँगा. मुझे नवीनीकारण नहीं अपनाना. मै माटी की भूमि मेँ नंगे पाव घूमना चाहूंगा. मेरे लिबास में मुझे कोरी सफ़ेदी मंज़ूर है. रात होते ही मै लालटेन की रौशनी मे रहना चाहता हूँ. घर हो, घर मेँ खुला आँगन मयस्सर हो, लोग हो. रात की चांदनी रात मे घी लगी रोटी के साथ आम का आचार मुझे जचेगा. बर्गर, पिज़्ज़ा, अन्य कोई व्यंजन की उम्मीद नहीं. घर की पाली हुई गाय का दुग्ध मिलेगा तो मै चूल्हे की लौ मेँ उसे गरम करके खाने मेँ खा लूंगा.  भूखे रहने की आदत छूट गयी है. आदि मानव हमारे पूर्वज रहे और हमें एक घंटे प्यास से नहीं रह पाएंगे, शायद मर ही जाए तो ताज्जुब नहीं. इतनी सुविधाएं किस लिए. भूख का होना ही तो जरूरी है. घंटो भूखे रह लिए तो थाली का एक दाना छोड़ दे कोई तो मै इफरात मानु. अब हम नाजुक है. चार कदम चलना, आठ मिनट भूखे रह पाना, सोलह मिनट गर्मी झेलना यही रह आया है बस. मै हठ करूँगा. कोई तो समय था जब ना रेलगाड़ी थी, हवाईजहाज तो छोडो. क्या दिवाली घर मेँ मनाते, कितने मुसाफिर ही हो गए, कितने साल मुँह ना देखा. अब कहते है की जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं, इनसे उनसे सबसे मिल लो, कौन कब जा गुज़रे. गुज़रे तो गुज़र

पलायन करने के लिए

Image
  हम सब को उड़ने की, अदृश्य होने की, ये दुनिया से दूसरी दुनिया में जा पाने की शक्ति होनी चाहिए. हाँ. मैं किसी भी माया की बाते नहीं कहता. धरती से पलायन करने की बाते है. विशाल अंतरिक्ष में खोने की बात है. धरती में तो हम आज़ादी से देश भी पलायन नहीं कर पाएंगे. अबके यहाँ राजशीय सीमाये है. सीमाओं में आदमी गोला बारूद लिए आपको मार गिराने के लिए तैनात है. उधर ऐसे ही चले जाने में मनाही है. बनी हुई व्यवस्था में संघर्ष अनिवार्य है. हा कुछ ऐसे नियम बने है जिससे सामाजिक और आर्थिक लाभ उठाये जाते है. ये सामूहिक शक्ति की देन है. इसे अनेक पूर्वजो ने अर्जित की है. व्यावहारिक होने के स्वाभाव ने सम्मलित की है. एक के लिए सव्यवहार दूसरे के लिए दुर्व्यवहार भी साबित होना संभव है.  आदमी की आदमियत एक दिन की नहीं है. पहले के लोग खुद नरसंहारी थे, निर्वस्त्र घूमते थे, और अपना डेरा लिए उम्र भर फिरते थे. फिर कथाये, मान्यताये, नैतिक नियम क़ानून समय समय से उभरे और विभिन्न जगहों में क्षेत्रीय समाज आज के रूप है. हिंसा अब भी है. सामाजिक तनाव आज भी है.  यों हज़ारों साल की फेर बदली और उथल पुथल के बाद भी आदमी स्वार्थी, डरपोक

घर, प्रवासी, आदमी

Image
जद्दोजहद घर बनाने से लेकर घर बसाने की है, उसे सवारने की है. क्यों ना आदमी ताउम्र बेघर ही रहे. कोई ठिकाना ही ना हो. ऐसा किस हाल में हो जाए. समाज की नीव का विगठन करके सब अस्त व्यस्त करें देते है. क्या बचेगा? आदमी किस लिए कमाने को रुझाएगा? बेघर आदमी का क्या परिवार? ना आदमी ना उसकी औरत ना उसके बच्चे. फिर तो बड़ी अराजकता की बात हुई. समाज किस रूप में देखोगे? समाज को समाज ही बोला जायेगा या जंगल? तो क्या घर का होना समाज मेँ सामाजिकता का होना है? मै जंगल की तलाश एक महानगर में करता हूँ. मै प्रवासी हूँ. मुझे बड़ी ईमारतो के जगह घने पहाड़ और खुला आसमान देखना है. मै खुले पेड़ो के तले बैठ कर, खुली हवा में सास लेने को देखा करता हूँ.  एक प्रवासी की क्या जिम्मेवारी बनाई जाए? की वो प्रवास किये शहर को अपना बना सके? मेरी प्रवसीयता कब तक रहेगी? गर सब सही हुआ तो कभी मै भी इतनी पूँजी इकठ्ठी कर बैठूंगा की अपने प्रवास में एक निश्चित ठिकाना बना लूंगा. उसके बाद उम्र मुझे बची हुई उम्र तक बंदीग्रस्त कर देगी और तभी मुझे अपने प्रवासी होने की याद आएगी.  प्रवासी होने से लेकर मेरे बंदी होने तक मै बनाये हुए समाज के ढाचे

रविवार की नींद

Image
अब के सर्दिया लगने को आयी है. एक दो दिन की बात नहीं रही. पूरा एक जमाना चाहिए की उड़ा जा सके. उड़ के कही धरती के किसी दूसरे कोने में जा के सोया जाए. कहा.. कही तो भी. आत्मीयता कहा मिलेगी. मन से शांत कहा रह पाओगे? मुझे खाली समय चाहिए. बैठ के नीले आसमान को देखु. वही नींद लग जाए और बिना समय देखे बस सोता रहूँ. सॉरी थोड़ा स्कैम हो गया है. अब तक सब कुछ गलत समझाया बुझाया गया है. करियर और ओहदे वाली बाते. आज़ादी कही तो भी नहीं है. देश की, आदमी की, आदमी के अन्तःकरण की.. सब को फसाया गया है. जब जंगलों को काटा गया, जब पुल बना दिए गए, जब ऊंची ईमारतो का निर्माण किया गया. जब घोड़ो को सारथी बनाया गया, जब इंजन का उपयोग यातायात में लाया गया. जब तलवारे, कट्टे और तोपों में इजाफा हुआ. जब किसी ने किसी के घर में घुस के चोरी की. जब आदमी ने आदमी को बंदी बनाया.  मतलब की आदमी जबसे मॉडर्न बना दिया गया, तबसे.. और उसके पहले का क्या? अच्छा हां. उसके पहले का क्या? कोनसे ज़माने से सोचु! नदिया सूखी तो भूतल से पानी कैसे निकले? हैजा फ़ैल गया तो गाओं के गाओं को कौन बचवा ले? और क्या जद्दोजहद बची.  अरे.. मैंने तो सोचा था के थोड़ा सुख

लोकल ट्रेन के सन्दर्भ में आदमी

Image
  ये लोकल ट्रेन में बैठे बैठे आदमी जाने किस ख्यालो में खो जाता है. शायद बैठने को मिल गया इसका कोई मर्म एहसास उसे कायल कर देता होगा. या घर और करीब है इसकी अनुभवता पे दिलचस्पी छा जाती होगी. आँखें खोई हुई, चेहरे में कोई सुर्खिया नहीं. और कभी अचानक से चलते सफर को गौर से निहार लेना.  आदमी ख्यालो में गुम है ये बड़ी बात है. आदमी या तो गुमसुम दिखता है या अपने फ़ोन को देखता है. फ़ोन तो कैद है हमारी. हाँ.. हाल में यही महसूस किया. मैंने सोचना छोड़ दिया है. मै अब बस देखता हूँ. फ़ोन की स्क्रीन में. कई कई देर तक. लोकल में बात करने वाले आदमी भी दिख पड़ते है. इनमे बड़ी गहराई होती. इनकी बाते राजनैतिक है, सामाजिक है हर प्रकार से. जैसे अर्थशास्त्री माइक्रो और मैक्रो के स्तर में जाके अर्थव्यवस्था को समझते है, वैसे इन सब बातो में माइक्रो-सामाजिक बाते होती है. लेकिन हाँ भाईचारा देखो तो. आप बोल दे की मेरा बैग प्लीज़ वहा पे रख दो, या प्यार से पुचकारते हुए ज़रा सी जगह बनाने की दरख्वास्त कर दो.. आदमी हो जाते है. एडजस्ट. लड़ाई भी है पर अपनी जगह.  मै तो चाहता हूँ की लोकल ट्रेन टाइम्स के नाम पर कोई पत्रिका ही छपन

रावण से सहानुभूति

Image
सोचता हूँ की रावण का पाप कितना बड़ा होगा की उसकी सजा अब भी ख़तम नहीं होती. हर साल पूरे भारत में और विश्व के कई देशो में हिन्दू धर्म के लोग दशहरा के दिन हज़ारो रावणो का वध करवाते है. हमें नहीं मालूम की रावण कैसा दिखता होगा. मैंने उसकी प्रतिमा और पुतले भयावह ही देखे है. उसकी बड़ी बड़ी मूछे है, उसकी आँखों में ज्वालामुखी फटता है, उसके दस सर है.. ऐसा कुछ.  मुझे कुछ सहानुभूति होती है रावण से. बच्चे से लेकर बूढ़े तक सब लोग उसके जलते हुए पुतले को देख देख खुश और अचंभित होते है. रावण गर कही से देखता होगा तो क्या सोचता होगा. क्या उसका दिल पसीज जाता होगा? क्या उसे ग्लानि मारे डालती होगी? हर दशहरा गुज़र जाने के बाद उसके लिए दोबारा ये दिन आना भी कितना दर्द से होगा. या की ऐसा हो की उसे इतनी नफरत पसंद हो. रावण तो रावण ठहरा? हमें सबको मालूम है की रावण ने घोर पाप किया था. लेकिन उसके पश्चाताप को अब ख़त्म कर देते है ना. उसे अपने नाम से मुक्ति मिल जाए काश. हाँ, कर्म ऐसा किया है की भुलाया ना जा सके. उसे तो श्री राम और उनके लोगों ने कई बार चेतावनी भी दी होगी. क्या उसे इसका एहसास हुआ होगा की वो चिरजीव वर्षो तक यूँ बद