ट्रेन का जनरल डब्बा
लम्बी यात्रा होती है तो ट्रेन में जनरल डब्बा होना चाहिए. इससे भाईचारा बढ़ता है. पसीने से पसीना मिलता है. लोग रोटी पानी साझा करते है. हा थोड़ी बहस बाजी होती है. थोड़ी धक्का पेली होती है. जब तक ट्रेन नहीं चलती, लोग बेकाबू रहते है, ऐसा लगता है की अभी हीं कोई किसी को मार देगा. अंतिम में ज़्यादातर लोग सहजता को अपनाते है. ऊंची आवाज़ के अलावा और ज़रा सी गरमा गर्मी के बाद लोग कहते है की काहे को झगड़ा करें, जाने देते है, दो एक रात की तो बात है. वही तीन लोगों के बैठने की जगह में आठ लोग कैसे बैठता है, आप डब्बे में घुसे तो जाने. ट्रेन चलने को आती है तो खुली हुई खिड़कियों से ताज़ी हवा अंदर आने लगती है. यही आशा की पहली किरण है. एक एक दो दो करके सभी को कहीं ना कहीं बैठने का जुगाड़ मिलने लगता है. डब्बे में उमस कम हो जाती है. लोग तबेले में खड़ी गाय भैंसो के तरह एक दूसरे से सट कर चिपक जाते है और चुप चाप एक दूसरे से कंधे मिलाये बैठे रहते है. जो पहले जगह नहीं दें रहा होता, वो भी किसी प्रभाव से जगह बना देता है. आखिर कोई आदमी घंटों से सामने खड़ा है, तो दिल किसका नहीं पिघलेगा! हालांकि ये एक विचित्र प्रसंग है