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धौंसिया उर्फ़ बुली

उसने फुफकारा, इधर उधर देखा और पास में रखी हुई बांस की छड़ी को हाथ में उठा लिया. छड़ी को हाथ में उठाते ही उसने उसे ज़ोरों से ज़मीन में मारा. उसने अपनी मुट्ठीयों को बंद किया और सीना तान कर तेजी से साँसे लेने लगा. चिल्लाया भी. लोग तब भी हसते रहे. उसका नया गमछा जो की उसके मुँह बोले मित्र ने छीन लिया था और उसे ना देने का नखरा कर रहा था, इससे उसका गुस्सा समाया ना रहा. बर्दास्त करने कि और सताए जाने कि आदत तो थी उसको. हर बार कि तरह आज भी वो बेसहारा रहा आया. उसके इस जोश और राग से लोगों की हसीं फूट रही थी. जिस चायवाले के टपरी में वो चाय पीने आया था, वो भी अपनी हसीं को नहीं रोक पा रहा था. वे फलों का ठेला वाला, जो की बगल में ही खड़ा रहा, उसने भी ज़ोरों से ठहाके लगाए, पान वाले ने भी, रास्ते से निकलते वालों ने भी.  उसकी कद काठी ज़रा कम रह गयी थी और उसका मस्तिष्क पूरी तरह से विकसित नहीं हो सका था. वो जब बोलता था तो हकला जाता था. निचला होंठ अंदर कि ओर था. कमर ज्यादा पतली थी इसलिए पैंट ढीली रहे आती थी. कमीज़ की आस्तीन बड़ी होती थी. मुंडी नीचे करके चलने की उसको अब आदत हो गयी थी. लेकिन वे किसी पे निर्भर...